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बौद्धाभिमत पृथक्त्व एकांत का खण्डन ] तृतीय भाग
[ ५५ इस प्रकार से तो सर्वथा एकत्व का लोप करने पर प्रमाण से प्रसिद्ध जीव द्रव्य की अन्वयरूप सन्तान का अभाव हो जायेगा। स्कंधरूप अवयवों में एकत्व न होने से समुदाय नहीं बनेगा। सदृश परिणामरूप एकत्व को न मानने से साधर्म्य भी नहीं बनेगा। उभय जन्म में अन्वयरूप एक आत्मा को न मानने से परलोक गमन नहीं होगा तथैव एकत्व के बिना स्मृति के न होने से दत्त ग्रह-देकर वस्तु वापस लेना ही नहीं सिद्ध होगा, किन्तु ये सब अस्खलितरूप प्रमाण से सिद्ध हैं अतः पृथक्त्वैकांत सिद्ध नहीं होता है।
बौद्ध के यहाँ एक भेदरूप विज्ञानाद्वैतवादी कहता है कि ज्ञान ज्ञेय से सर्वथा भिन्न हैं अस्तित्व से ही दोनों पृथक्-पृथक् हैं, अतः पृथक्त्वैकांत सिद्ध हैं।
इस पर जैनाचार्यों का कहना है कि ज्ञान से ज्ञेय में कथंचित् ग्राह्य-ग्राहकरूप से स्वभाव भेद है, ज्ञान तो ग्राहक है एवं ज्ञेय ग्राह्य है फिर भी अस्तित्व आदिरूप से तादात्म्य है भेद नहीं है। यदि सत् आदिरूप से भी तादात्म्य न मानों तब तो ज्ञान आकाश पुष्प के समान असत् हो जायेगा। पुनः ज्ञान के अभाव में बहिरंग अथवा अन्तरंग ज्ञेय पदार्थ ही सिद्ध नहीं हो सकेंगे क्योंकि ज्ञेय तो ज्ञान की अपेक्षा से ही ज्ञेय बना है।
सार का सार-बौद्धों ने प्रत्येक कार्य के अणु-अणु को भिन्न माना है एवं कार्य-कारण को भी सर्वथा भिन्न-भिन्न माना है किन्तु यदि प्रत्येक परमाणु हमेशा ही भिन्न है तो घड़े का रूप कैसे दिखेगा? उसमें पानी कैसे भरा जायेगा ? एवं कारण से कार्य को सर्वथा भिन्न कहने पर मिट्टी के पिंड का सर्वथा नाश होने के बाद घड़ा किससे बना है ? अतः इनकी मान्यता ठीक नहीं है।
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