SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 133
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ __५४ ] अष्टसहस्री [ द्वि. प. कारिका ३० बौद्धाभिमत पृथक्त्वकांत के खंडन का सारांश बौद्ध-हमारे यहाँ बहिरंग एवं अंतरंग परमाणु सजातीय, विजातीय से व्यावृत्त, निरन्वय विनश्वर ही हैं अर्थात् सभी ज्ञानपरमाणु, बाह्यपदार्थ अणु-अणु रूप से पृथक्-पृथक् ही हैं किन्तु उनका भेद दिखता नहीं है । "अपरामृष्ट भेदाः कार्य कारण क्षणा एवं सन्तानः" परस्पर में भिन्न कार्यकारण के क्षण ही सन्तान हैं। वह एकत्व का लोप करने में भी सुघटित है। यदि कारण को कार्य स्पर्श करता है तब तो घट के लिये मिट्टी दण्डादि कारण इष्ट है तथैव उस समय गधे, कुंभकार की पत्नी आदि भी वहाँ कार्य काल में मौजूद हैं वे भी कारण हो जावें अतः कारण कार्य के समय नहीं हैं निरन्वय नष्ट हो गया फिर भी निरन्वय क्षणिक में भी कार्य का कारण के साथ अन्वय व्यतिरेक मौजूद है। जैनाचार्य-यदि ऐसे भिन्न-भिन्न कार्यकारण क्षण को एक संतान कहोगे तब तो बौद्धों के चित्त क्षण ज्ञान पर्याय से बुद्ध का ज्ञान उत्पन्न हुआ है उसमें भी कार्यकारण भाव है अतः उन्हें भी एक संतान मानों । यदि आप कहें कि उन बौद्ध और बुद्ध के ज्ञान में कार्यकारण का अन्वय व्यतिरेक नहीं है सो ठीक नहीं क्योंकि "नाकारणं विषयः" जो ज्ञान का कारण है वही ज्ञान का विषय है, जो कारण नहीं वह विषय भी नहीं है। बौद्ध के ज्ञान से उत्पन्न हुआ बुद्ध का ज्ञान यदि उनको विषय न करे तो वह बुद्ध असर्वज्ञ बन जायेगा किन्तु बुद्ध चित्त की उत्पत्ति में सभी पदार्थ सामान्य रूप से कारण हैं अतः सभी पदार्थ अपने पूर्वक्षण के समान समनंतररूप हैं। हम स्याद्वादियों ने तो "कार्यकारणरूप को प्राप्त अतिशयात्मक पूर्व और उत्तर दोनों कालों में रहने वाले अन्वय को संतान कहा है। जैसे कि आप के यहाँ चित्रज्ञान में नील-पीतादि भेद होने पर भी ज्ञानरूप से एक चित्रज्ञान माना गया है। इस पर यदि चित्राद्वैतवादी कहे कि चित्रज्ञान के अवयवों में प्रत्यासत्ति विशेष होने से चित्र में एकत्व है, तब तो "कथंचित् तादात्म्य को छोड़कर अन्य देश, काल, भाव प्रत्यासत्ति संभव नहीं है अन्यथा एक ही देश, काल में वायु, आतप मौजूद हैं वे भी एक हो जायेंगे और द्रव्य प्रत्यासत्ति से तो कथंचित् तादात्म्य ही कहा जाता है। यदि आप भिन्न-भिन्न कार्यकारणों को ही संतान कहेंगे तब तो आपके यहाँ मत के पिंडरूप कारण से घट कार्य सर्वथा भिन्न रहने के सदृश जीव का प्रेत्यभाव-परलोक गमन का ही अभाव हो जायेगा क्योंकि कथंचित् एकत्व के न मानने पर वर्तमान जन्म से जन्मांतर में एकत्व कैसे रहेगा ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy