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अष्टसहस्री
[ द्वि० ५० कारिका ३० ज्ञेयस्यासत्त्वप्रसङ्गात् । ततो बहिरन्तश्च न किञ्चित्कथंचिदपि ज्ञेयं नाम त्वद्विषां प्रतीयेत ।
[ ज्ञानं ज्ञेयात् सद्रूपेणापि भिन्नमिति विज्ञानाद्वैतवादिना मन्यमाने विचारः प्रवर्तते जैनाचार्याणाम्। ]
ननु सद्विशेषाद् भेदेपि ज्ञानस्य ज्ञेयान्नासत्त्वप्रसक्तिः । सदन्तरत्वं तु न स्यात् पटान्तराभेदेपि पटस्य पटान्तरत्वाभाववत् । सत्सामान्यं पुनः सर्वेषु सद्विशेषेष्वसत्त्वव्यावृत्तिमात्रम् । न च तदात्मना कस्यचित्कुतश्चिद्भेदोऽभेदो वा' विचार्यते तस्य वस्तुनिष्ठत्वात् सन्मात्रस्य चावस्तुत्वात् । तदात्मना व्यावृत्तस्य ज्ञानस्य ज्ञेयात्परमार्थसत्त्वाविरोधान्न कश्चिदुपालम्भ इति चेन्न, सत्सामान्यस्याभावे सांवृतत्वे वा सद्विशेषाणामभावप्रसङ्गात् सांवृतत्वापत्तेश्च
इसलिये हे भगवन् ! आपके द्वेषी एकांतवादियों के यहाँ बहिस्तत्त्व-अंतस्तत्त्वरूप कोई भी ज्ञेय पदार्थ किसी प्रकार से प्रतीति में नहीं आ सकता है ।
[ विज्ञानाद्वैतवादी ज्ञान को ज्ञेय से सत्रूप से भी भिन्न मानते हैं उस पर विचार । ]
योगाचार-सद्विशेष से ज्ञान में ज्ञेय से भेद होने पर भी असत्त्व का प्रसंग नहीं आता है किन्तु सदन्तरत्व भी नहीं होगा जैसे पदांतर से भेद होने पर भी भिन्न पट में पटांतरस्व का अभाव है-अर्थात् एक ज्ञानरूप सत् से भिन्न सत् प्रमेयरूप है वह भिन्न सत् सदंतर कहलाता है उसका भावरूप तत्त्व प्रमेयत्व कहलाता है। वह प्रमेयत्व ज्ञान में नहीं होगा। जैसे कि पटांतर-घटादि से भेद के होने पर भी पट में पटांतरत्व (घट) का अभाव पाया जाता है, पुनः सभी सद्विशेषों में (क्षणिकों में) वह सामान्य असत्त्व की व्यावृत्ति मात्र ही है अर्थात् बौद्ध मत में असत् को व्यावृत्ति मात्र को ही सत् कहते हैं। सत्सामान्यरूप किसी ज्ञान में किसी ज्ञेय से भेद है या अभेद ? ऐसा विचार भी नहीं किया जा सकता है क्योंकि वह विचार वस्तुनिष्ठ है और सन्मात्र तो अवस्तुभूत है। सत्सामान्यरूप से व्यावृत्त ज्ञान में ज्ञेय से परमार्थ सत्त्व क्षणिकपने का विरोध नहीं है अतएव ज्ञान ज्ञेय से भिन्न होने से दोनों ही असत्रूप हो जायेंगे, ऐसी उलाहना आप जैनी हमें नहीं दे सकते हैं।
___भावार्थ-जिस प्रकार से चैतन्यस्वरूप की अपेक्षा ज्ञान ज्ञेय से सर्वथा भिन्न है उसी प्रकार वह अपने अस्तित्व को लेकर भी ज्ञेय से भिन्न है। इस प्रकार ज्ञान और ज्ञेय ये दोनों अपने-अपने स्वरूप से परस्पर में सर्वथा भिन्न-भिन्न ही हैं अतएव पृथक्त्वैकांत पक्ष ही सिद्ध होता है।
1 यत एवम् । दि० प्र०। 2 ननु हे स्याद्वादिन् सद्विशेषस्वरूपात् ज्ञेयात् ज्ञानस्य भेदेपि सत्यसत्त्वं नास्ति । तथा ज्ञानस्य सदंतरत्वं ज्ञेयत्वञ्च नास्ति यथा पटस्य पटान्तराद् घटादेर्भ देपि पटान्तरत्वं घटादित्वं नास्ति=स्याद्वादी आह हे सौगत ! भवन्मते सत्सामान्य किमिति प्रश्ने ब्रूते । सर्वेषु सद्विशेषु असत्त्वव्यावृत्तिलक्षणं सत्सामान्यम् । दि० प्र० । 3 भणति क्रमोयमभेदस्यानगीकरणात् । दि० प्र०। 4 सद्विशेषेष्वसत्त्वव्यावृत्तिमानस्य सत्सामान्यस्य वस्तूत्वं घटते । स्याद्वाद्युपगत-यान्वयरूपस्य सन्मात्रस्यावस्तुत्वं घटते । सद्विशषस्य वस्त्वाश्रयत्वात् । दि० प्र०। 5 सत्सामान्यात्मना । असत्त्वव्यावृत्तिमात्रेण सत्सामान्यात्मना कृत्वा ज्ञेयात् व्यावृत्तस्य भिन्नस्य ज्ञानस्य विशेषसत्त्वं न विरुद्धयते । एवमस्माकं सौगतानां कश्चिद्दोषो नास्ति । दि० प्र० ।
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