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बौद्धाभिमत पृथक्त्व एकांत का खण्डन ] तृतीय भाग यति। न पुनरन्यत्र जीवान्तरे तेषामशक्यविवेचनत्वाद्विरोध वयधिकरण्यादीनामेकज्ञाननिर्भासविशेषैरपाकरणान्निरंकुशत्वसिद्धेःपृथक्त्वैकान्तपक्षे दूषणान्तरमुपदर्शयन्तः प्राहुः
सदात्मना च भिन्नं चेज्ज्ञानं ज्ञेयाद् द्विधाप्यसत् ।
ज्ञानाभावे कथं ज्ञेयं 'बहिरन्तश्च ते "द्विषाम् ॥३०॥ सदात्मना सत्सामान्यात्मना भिन्नमेव ज्ञानं ज्ञेयादिति चेविधाप्यसदेव प्राप्त ज्ञानस्यासत्त्वे
से एकत्वरूप आत्मा, सत्त्व, जीव आदि नामों को प्राप्त करने वाला है। वह स्वामी के समान स्वभाव भेदों का उलंघन करके आत्मा को छोड़कर अन्यत्र नहीं रहता है अर्थात् स्वभाव भेदों को आत्मा में हो कराता है" किन्तु अन्यत्र-भिन्न जोवादिकों में वह अन्वय नहीं बन सकता है क्योंकि उनका विवेचन करना अशक्य है। इसी प्रकार से एक चित्रज्ञान के प्रतिभास विशेषों के द्वारा विरोध, वैयधिकरण्य आदि दोषों का निराकरण कर दिया गया है ।
अतएव पूर्वोक्त संतान, समुदाय, साधर्म्य, प्रेत्यभाव आदि की निरंकुशरूप से सिद्धि देखी जाती है । पुनरपि आचार्य पृथक्त्वैकांत पक्ष में अन्य प्रकार से दूषण को दिखाते हुये कहते हैं
ज्ञान यदी निज ज्ञेय वस्तु से, सत्स्वरूप से भिन्न कहा। तब तो ज्ञान-ज्ञेय दोनों का, भी अस्तित्व समाप्त हुआ। प्रभो ! ज्ञान के अभाव होने-से बाह्याभ्यंतर सब ज्ञेय ।
कैसे होंगे सिद्ध ! कहो फिर तवमत विद्वेषी के मेय ॥३०॥ कारिकार्थ-यदि सतरूप से भी ज्ञान ज्ञेय से भिन्न माना जाये तब तो ज्ञान और ज्ञेय दोनों ही असत्रूप हो जायेंगे क्योंकि हे भगवन् ! आपके द्वेषो सर्वथकांतवादियों के यहाँ ज्ञान के अभाव में बहिस्तत्त्वरूप तथा अन्तस्तत्त्वरूप ज्ञेय-पदार्थों की सिद्धि भी कैसे हो सकेगी ? |॥३०॥
सदात्मना-"सर्व सत्" इस प्रकार यदि सत्सामान्य से ज्ञेय से ज्ञान सर्वथा भिन्न ही माना जाये तब तो ज्ञान और ज्ञेय दोनों ही इस प्रकार से असत्रूप ही प्राप्त होते हैं क्योंकि ज्ञान का असत्त्व मानने पर ज्ञेय के भी असत्त्व का प्रसंग प्राप्त होता है।
1 तेषां सन्तानादीनां स्वभावभेदानां पृथक्कर्तुमशक्यत्वात् । सन्तानात्सकाशात् । दि० प्र०। 2 दोषाणाम् । दि. प्र०। 3 स्वस्मिन्नेव वर्तत इति कुतः इत्याशंकायामाह । ब्या० प्र० । 4 सदात्मना सत् सामान्यात्मना भिन्नमेव ज्ञानं ज्ञेयादिति चेत् । दि० प्र०। 5 तदाज्ञानाभावे सति । दि० प्र०। 6 ज्ञानं सद् ज्ञेयं सदितिस्वरूपेण भिन्न न भवेत । ज्ञानज्ञेयप्रकारेण । दि० प्र० । 7 घटादिसूखादि । दि० प्र०। 8 अर्हतः । दि० प्र० । 9 जनमतद्वेषिणाम् । दि० प्र०।
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