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________________ ५० ] अष्टसहस्री [ द्वि०प० कारिका २९ साधर्म्यमन्यदन्यत्रात्मसाकर्यात्'; येन' कालसमनन्तरोपलम्भनियमभाजामेकसंतानत्वं' व्यवतिष्ठते देशसमनन्तरोपलम्भनियमभृतां चैकस्कन्धाख्यं समुदायत्वं युज्यते', तादृशः साधर्म्यस्यैकत्वनिवेऽनुपपत्तेः 'कथंचिदेकत्वशून्यार्थ साधर्म्यस्य' संतानान्तरेषु नानासमुदायेषु च दर्शनात् । एतेनैकसंतानत्वात् प्रेत्यभावव्यवहारकल्पनमपास्तं कथंचिदेकत्वापह्नवे 'तदयो. गात् । कथमिह12 जन्मनो जन्मान्तरेणैकत्वं, विरोधादिति चेन्न, कथंचिदेकत्वे विरोधाभावात् । तथा प्रतिभासादेकज्ञाननिर्भासविशेषवत् । तथा हि। एकज्ञाननिर्भासविशेषाणां मिथः स्वभावभेदेपि14 यथैकत्वपरिणामः स्वभावतोऽनंकशस्तथा प्रेत्यभावादिष संतानोन्वयः16 परमार्थकत्वमात्मसत्त्वजीवदिव्यपदेशभाजनं17 स्वभावभेदानाक्रम्य स्वामिवदनन्यत्र वर्त कथंचित तादात्म्य भी हो जावे क्या बाधा है ? क्योंकि तादृश-वैसे एक संतान वाले ज्ञान क्षणों में और परमाणुओं में आत्मसांकर्य को छोड़कर (कथंचित् तादात्म्य के बिना) अन्य कोई साधर्म्य नाम की चीज नहीं है" जिससे कि काल समनंतर की उपलब्धिरूप नियम वालों में एक संतान की व्यवस्था सिद्ध के और देश समनंतर की उपलब्धि के नियम वालों में एक स्कंध नाम का समुदाय बन सके क्योंकि एकत्व का निन्हव करने पर एक संतान और समुदाय में कारणभूत उस प्रकार का साधर्म्य बन ही नहीं सकता है । हां ! कथंचित् एकत्व से शून्य अर्थ साधर्म्य तो भिन्न-भिन्न संतानों में और नाना समुदायों में देखा जाता है। इसी कथन से “एक संतानपना होने से परलोक के व्यवहार की कल्पना होती है" इस कल्पना का भी खण्डन कर दिया गया समझना चाहिये क्योंकि कथंचित् एकत्व का निन्हव करने पर परलोक का अभाव ही हो जाता है । बौद्ध-इस लोक में वर्तमान जन्म का जन्मांतर के साथ एकत्व कैसे हो सकता है ? क्योंकि विरोध आता है। जैन-नहीं, कथंचित् एकत्व के मानने पर विरोध का अभाव है क्योंकि कथंचित् एकत्वरूप से प्रतिभास देखा जाता है एक चित्रज्ञान के प्रतिभास विशेष के समान । तथाहि । वत्रज्ञान के प्रतिभास विशेषों में परस्पर में स्वभाव भेद होने पर भी जिस प्रकार से स्वभाव से एक परिणाम अनंकुश है । उसी प्रकार से प्रेत्यभाव-परलोक सुख आदिकों में जो अन्वयरूप संतान है वह परमार्थ 1 स्वरूप । ब्या० प्र० । 2 अनाक्षेपे । ब्या० प्र०। 3 ज्ञानक्षणानाम् । ब्या० प्र०। 4 परमाणूनाम् । ब्या० प्र० । 5 येन तत्स्वरूपकत्वं भवितुमर्हति । ब्या० प्र० । 6 अनुपपत्ति दर्शयति । ब्या० प्र० । 7 एकत्वनिन्हवेपि तादृशस्य । ब्या० प्र०। 8 यसः। तासः । ब्या० प्र० । 9 क्षणिकत्वादिति बंधनस्य । ब्या० प्र०। 10 तेषामप्येकसन्तानत्वमेकसमूदायत्वञ्च भवतु । ब्या०प्र०। 11 तस्य प्रेत्यभावस्यासंभवात । दि० प्र०। 12 इह जन्म विद्यते यस्य स इह जन्म तस्येह जन्मनः जन्तोः जन्मान्तरेण सहैकत्वं कथं न कथमपि कस्माद्विरोधसंभवात इत्युक्तं सौगतेन । दि० प्र०। 13 पूर्वापरजन्मनोः । ब्या० प्र०। 14 स्वरूपभेदेपि। ब्या० प्र०। 15 निर्बाधः । ब्या० प्र० । 16 कोर्थः । कर्मपदम् । ब्या० प्र०। 17 प्राणि । ब्या० प्र० । 18 व्याप्य । स्वीकृत्य । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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