SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 123
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४४ ] अष्टसहस्री [ दि० प० कारिका २६ सद्रव्यादिरूपेण 'प्राक्कार्यकाले च सतस्तत्कार्यस्योत्पत्तौ खरादिमस्तके विषाणादेरुत्पत्तिः किन्न स्यात् ? गवादिशिरसीव तत्रापि तस्य विषाणाद्याकारतया प्रागसत्त्वस्य सद्व्यादिरूपतया सत्त्वस्य चाविशेषात् । तदुत्पत्तिकारणस्य दृष्टस्यादृष्टस्य' चाभावात् तत्र न तस्योत्पत्तिरिति वचने परेषामपि "प्रागसत्त्वैकान्ताविशेषेपि कार्यस्य पूर्वं सति कारणे जन्म नासतीति न किंचिदतिप्रसज्यते' , तदन्वयव्यतिरेकानुविधाननिबन्धनत्वात् तत्कारणत्वस्य । न च 'निरन्वयक्षणिकत्वेपि कार्यस्य कारणान्वयव्यतिरेकानुविधानमसंभाव्यं, स्वकाले सति कारणे कार्यस्योत्पत्तेरसत्यनुत्पत्तेः प्रतीयमानत्वात् 'स्वदेशापेक्षान्वयव्यतिरेकवत् । तदुक्तम् __ "अन्वयव्यतिरेकाद्यो यस्य दृष्टोनुवर्तकः । स्वभावस्तस्य तद्धेतुरतो भिन्नान्न संभव:'" उत्पत्ति स्वीकार करते हैं, तब तो गधे आदि के मस्तक पर सीम आदि कार्यों की उत्पत्ति क्यों नहीं हो जाती है ? क्योंकि गौ आदि के शिर पर होने वाले सींग के समान उस गधे आदि के मस्तक पर भी उस मस्तक के अवयव लक्षण जो कारण हैं वे विषाण आदि आकार से असत् रूप हैं फिर भी सद्रव्य आदि रूप से सत्रूप हैं। यह बात दोनों जगह एक समान हैं। यदि आप जैन ऐसा कहें कि उस सींग की उत्पत्ति के कारणरूप दृष्टप्रत्यक्ष एवं अदृष्ट-भाग्य आदि कारणों का अभाव है अतः उन गधे आदिकों के मस्तक पर सींग आदि उत्पन्न नहीं हो सकते। तब तो हम सौगतों के यहाँ भी प्रागसत्-पहले असत्रूप एकांत के समान होने पर भी कार्य के पहले कारण के होने पर कार्य का जन्म होता है तथा कारण के न होने पर नहीं होता है अतएव अतिप्रसंग दोष नहीं आता है क्योंकि प्रत्येक विवक्षित कार्य अपने कारण के साथ अन्वय व्यतिरेक सम्बन्ध रखते हैं। निरन्वय क्षणिक में भी कार्य का कारण के साथ अन्वय व्यतिरेक असंभव है ऐसा भी आप नहीं कह सकते हैं क्योंकि अपने काल में कारण होने पर कार्य की उत्पत्ति होती है एवं कारण के नहीं होने पर नहीं होती है ऐसा प्रतीति में देखा जाता है। जैसे कि स्वदेश की अपेक्षा कारण और कार्य में अन्वय व्यतिरेक पाया जाता है। कहा भी है श्लोकार्थ-अन्वय और व्यतिरेक से जो कार्य स्वभाव जिस कारण का अनुवर्तक देखा जाता है। वह कारणभूत स्वभाव उस कार्य स्वभाव का हेतु है क्योंकि उस कारण स्वभाव से भिन्न अकारण से कार्य की उत्पत्ति संभव नहीं है। 1 सतः कार्यस्य । ब्या० प्र०। 2 खरमस्तके तस्य शृङ्गस्य । दि० प्र०। 3 दृष्टस्य खरादिशिरस: विषाणोत्पादकत्वेनादृष्टत्वादेवं तत्कारणं न भवतीति अतएव दृष्टकारणं न भवतीत्यर्थः । दि० प्र०। 4 प्रागभावकान्तपक्षेऽपि । दि० प्र० । 5 विवक्षितकारणम् । ब्या० प्र० । 6 कारणस्य । दि० प्र०। 7 स्वदेशे सति कारणे कार्यस्योत्पत्तिरिति द्रष्टव्यम्। दि० प्र०। 8 स्वकाल एव कारणं तस्मिन्सति कार्यस्योत्पत्तिर्घटते। असति कार्यस्योत्पत्तिर्न घटते । यथा स्वदेशे घटते अस्वदेशे न घटते कार्यस्योत्पत्तिः। दि० प्र० । १ ऐक्यात्कार्यस्य संभवो न । दि० प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy