________________
पृथक्त्व एकांत का खण्डन ] तृतीय भाग
[ ४३ हादि सर्वं न स्यात्तद्वत् । न च तदभावः शक्यः प्रतिपादयितुं, सकलबाधकशून्यत्वेन निरंकुशत्वात् ।
[ बौद्धाभिमतसन्तानमान्यतायाः पूर्वपक्षः। ] ननु चापरामृष्टभेदाः कार्यकारणक्षणा एव संतानः । स चैकत्वनिह्नवेपि' घटते एवे. त्यपि ये समाचक्षते तेषामपि कार्यकारणयोः पृथक्त्वकान्ते' कार्यकालमात्मानमनयतः कारणत्वासंभवात्तदनुत्पत्तेः कुतः संततिः ? ननु कार्यकाले सतोपि कारणत्वे तत्कारणत्वानभिमतस्य कार्यकालमात्मानं नयतः सर्वस्य 'तत्कारणत्वप्रसङ्गः । कार्याकारेण प्रागसतः
तथैव "च' शब्द से ऐसा समझना कि पहले किसी को कोई वस्तु देना पुनः वापस लेनारूप दत्तग्रह आदि सभी नहीं हो सकेंगे एवं इन सबका अभाव प्रतिपादन करना शक्य नहीं है क्योंकि सकल बाधक से शून्य होने से ये सब सन्तान, समुदाय, साधर्म्य, दत्तग्रहादि, निरंकुशरूप से देखे जाते हैं।
[ बौद्धाभिमत संतान की मान्यता का पूर्व पक्ष ] बौद्ध-परस्पर में भिन्न कार्यकारण के क्षणों को हो सन्तान कहते हैं और वह संतान एकत्व का निह्नव करने पर भी घटित हो जाता है।
जैन-"ऐसी मान्यता में भी आपके यहाँ कार्य और कारण में भिन्न एकांत के मानने पर अपने स्वरूप को कार्य के काल को प्राप्त न कराते हुये कारणों को "कारण" कहना ही असंभव है और तब पुनः कारण के अभाव में कार्य की उत्पत्ति ही नहीं हो सकेगी। पुनः सन्तान की सिद्धि कैसे होगी ?" अर्थात्-कार्य के काल में तो कारण रहता नहीं है अतः कारण का अभाव ही सिद्ध है पुनः कारण के अभाव में कार्य के न होने से सन्तान का लक्षण बन नहीं सकता है।
बौद्ध-कार्य के समय में जो मौजूद है ऐसे जिस किसी को भी कारणरूप स्वीकार कर लेने पर उस कार्य के कारणरूप से अनभिमत भी कार्य के समय उपस्थित रहते हैं। उन सबको भी उसके कारणपने का प्रसंग प्राप्त हो जायेगा अर्थात् घट के लिये जैसे मिट्टी दण्डादि कारण स्वीकृत हैं उसी प्रकार से उस घड़े के बनने के काल में गधे, कुंभकार की पत्नी आदि भी मौजूद हैं वे भी कारण बन जायेंगे। यदि आप जैन ऐसा कहें कि उत्पत्ति के पहले वह कार्य कार्य के आकार से असत्रूप है एवं सद्रव्य आदिरूप से पहले तथा कार्य के समय भी सत्रूप है इस प्रकार से हम विवक्षित कार्य को 1 सन्तानादिवत् । दि० प्र०। 2 सर्वोऽबाधकप्रमाणरहिततया । दि० प्र०। 3 द्रव्यत्वाभावेपि । दि० प्र० । 4 भेदकान्ते। दि० प्र०। 5 तद्विवक्षितकारणत्वेऽनभिमतस्यायोग्यस्य कार्यकालं यावत्स्वरूपं प्राप्नुवत: सर्वस्य वस्तुनः विवक्षितकारणत्वं प्रसजति-यथा पटकायें विवक्षितेऽभिमतकारणं तन्तवोऽन भिमतकारणं तत्समीपस्थो गर्दभादिः । दि० प्र० । 6 तेषां सौगतानां मते कार्यकारणयोरेकान्तेनैव पृथकत्वे सति कार्यावसरं प्रत्यात्मानं स्वरूपमप्राप्नुवतो वस्तुनः कारणत्वं न संभवति । तत्तयोः कार्यकारणयोरघटनात् । संतति कुतः न कुतोपीत्युक्तं स्यावादिना। दि० प्र०। 7 विवक्षितकार्य । ब्या० प्र०। 8 कार्य कालसत्त्वाविशेषात् । ब्या० प्र० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org