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________________ [ ४५ बौद्धाभिमत पृथक्त्व एकांत का खण्डन ] इति । ततोऽव्यभिचारेण कार्यकारणभूता एवापरामृष्टभेदाः क्षणाः संतानो युक्तः । इति कश्चित् तृतीय भाग [ अधुना बौद्धाभिमतसन्तानलक्षणं जैनाचार्या निराकुर्वन्ति । सोपि न प्रतीत्यनुसारी, तथा बुद्धेतरचित्तानामप्येकसंतानत्वप्रसङ्गात् तेषामव्यभिचारेण कार्यकारणभूतत्वाविशेषात् । 'निरास्रवचि तोत्पादात्पूर्वं ' बुद्धचित्तस्यापि संतानान्तरचित्तकारणत्वाभावान्न' तेषामव्यभिचारी कार्यकारणभाव इति चेन्न, यतः ' प्रभृति तेषां कार्य इसीलिये अव्यभिचाररूप से अपरामृष्ट भेद वाले ( एक दूसरे का स्पर्श न करने वाले) कार्य - कारण क्षण ही सन्तान हैं ऐसी मान्यता युक्तियुक्त सिद्ध हो गई । बद्धाभिमत सन्तान की मान्यता का जैनाचार्य खण्डन करते हैं । ] जैन - इस प्रकार से कहने वाले आप बौद्ध भी प्रतीति का अनुसरण करने वाले नहीं हैं क्योंकि उस प्रकार अव्यभिचाररूप से कार्य कारणों में एक सन्तानरूप कथन से तो बुद्ध और बौद्ध के चित्त क्षणों में भी एक संतानत्व का प्रसंग प्राप्त हो जाता है अर्थात् बौद्धों के चित्त क्षण- ज्ञान पर्याय से सुगतचित्त उत्पन्न होता है क्योंकि वह उससे उत्पन्न होने वाला है इसलिये उसमें कार्य कारण भाव हो जावे क्योंकि बौद्धचित्त तो कारण है और बुद्ध चित्त कार्य है क्योंकि उन बुद्ध और बौद्ध के चित्तक्षणों में अव्यभिचाररूप से कार्य कारणपना समान ही है । बौद्ध - निरास्रव चित्त के उत्पन्न होने के पहले कार्यरूप बुद्ध चित्त में भी संतानांतर चित्त के कारणपने का अभाव है अर्थात् बौद्धचित्त से उत्पन्न हुआ बुद्धचित्त यदि बौद्धचित्त को विषय नहीं करता है तब तो भिन्न संतान के चित्त कारण नहीं हो सकते हैं इसलिये उनमें अव्यभिचरित रूप कार्य कारण भाव नहीं पाया जाता है । जैन - ऐसा नहीं है, क्योंकि जब से लेकर उनमें कार्य कारण भाव है । तभी से उनमें व्यभिचार नहीं आता है अन्यथा बुद्ध के चित्त को असर्वज्ञपने का प्रसंग आ जायेगा । अनुकरण न करने वाले अन्वय और व्यतिरेक कारण नहीं हैं क्योंकि “नाकारणं विषयः " जो कारण नहीं है, वह विषय नहीं हो सकता है ऐसा बौद्धों का कथन है अर्थात् ज्ञान का जो कारण है वही ज्ञान का विषय है ऐसी बौद्धों की मान्यता है । बौद्ध - जिन चित्त क्षणों में ग्राह्य ग्राहक भाव के न होने पर भी तो कार्य-कारण भाव अव्यभिचारी है हमने उन्हीं चित्तक्षणों में एक संतानत्व स्वीकार किया है अतः कोई दोष नहीं आता है । 1 रागद्वेषरहित । दि० प्र० । 2 आश्रवचित्तोत्पादसमये । दि० प्र० । 3 सन्तानान्तरचित्तं कारणं यस्य बुद्धचित्तस्य । दि० प्र० । 4 तदानीं बुद्धस्य सर्वज्ञत्वात्सन्तानान्तरक्षणाविषया न भवेयुः । व्या० प्र० । 5 निराश्रवचित्तावस्थां प्रारंभ्य । दि० प्र० । 6 बुद्धेतरचित्तानाम् । व्या० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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