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________________ पृथक्त्व एकांत का खण्डन ] [ ३७ " गगनाद्यनंशमपि वर्तते इति चेन्न तस्यानन्तप्रदेशादितयानंशत्वासिद्धेरनाश्रयतया ' क्वचिद्वृवर्तते इत्यप्यसिद्धं, ' तदनन्तपर्यायत्वसाधनात्' स्वपर्या'द्रव्यत्वादिसामान्यमपि नैकमनंशमनेकस्व त्त्यभावाच्च । सत्तैका युगपदनेकत्र येभ्योत्यन्तभेदासिद्धेश्च समवायवृत्त्यनुपपत्तेः । व्यक्तिवृत्ति' सकृत्प्रसिद्धं तस्यापि तृतीय भाग स्वाश्रयात्मकतया कथंचित्सांशत्वानेकत्वप्रतीतेः । वैशेषिक – नैयायिक – गगन, दिशा, कालादि एक निरंश हैं फिर भी अनेक देश में स्थित हिमवन विध्यादिकों में रहते हैं अतः कोई दोष नहीं है । जैन - ऐसा नहीं कह सकते, आकाश में अनंत प्रदेशादिरूप से अनंशपना असिद्ध है एवं उस आकाश का अनाश्रितरूप से क्वचित् एक पदार्थ में वृत्ति - समवाय का अभाव है अर्थात् वह आकाश अनंत प्रदेशी होने से स्वयं अंशसहित है तथा किसी के आश्रय नहीं है अतः उसकी समवाय सम्बन्ध से कहीं पर भी वृत्ति मानी नहीं जा सकती है । नैयायिक - सत्ता एक है, अनंश है और अपनी पर्यायों से भिन्न है फिर भी समवाय वृत्ति से युगपत् अनेकों में रहती है । जैन -- यह कथन भी असिद्ध ही है । हमने सत्ता को भी अनंतपर्याय वाली सिद्ध किया है एवं अपनी पर्यायों से उसमें सर्वथा भेद नहीं पाया जाता है अतः समवाय से भी सत्ता की वृत्ति नहीं होती है । इसी तरह अपरसामान्य जो द्रव्यत्वादि हैं वे भी एक और अनंश हों, फिर भी युगपत् अनेकों अपने विशेषों में रहने वाले हों, यह बात प्रसिद्ध नहीं है क्योंकि ये द्रव्यत्वादि सामान्य अपने आश्रयभूत होने से कथंचित् अंश सहित और अनेक ही अनुभव में आ रहे हैं। संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व गुण भी एक साथ अनेकों में रहने वाले नहीं हैं क्योंकि प्रतियोगी संयोगादि में परिणाम-भेद प्रतीत हो रहा है । मात्र सादृश्य के उपचार से ही एकत्व का व्यवहार होता है । भावार्थ- संयोग, विभाग, परत्व और अपरत्व गुणों को नैयायिकों ने एक होते हुये भी युगपत् अनेकानुगत – अनेक में रहने वाले माना है अतः नैयायिक या वैशेषिक यदि इन गुणों को लेकर Jain Education International सांशत्वमेव । अनंशस्याश्रयो नास्ति । 2 गगनस्यानाश्रयतायोगमतापेक्षया पदार्थेषु । दि० प्र० । 4 तस्या 1 स्याद्वाद्याह । तस्याकाशादेरनन्तप्रदेशादित्वेनानंशत्वं न सिद्ध्यति । किन्तु अनाश्रयात् क्वचिदपि द्रव्यादिषु प्रवृत्तिर्न संभवतीति हेतुद्वयात् । दि० प्र० तथा च तद् ग्रन्थः षण्णामाश्रितत्वमन्यत्र नित्यद्रव्येभ्यः । दि० प्र० । 3 द्रव्येषु । स्सत्ताया अनन्तपर्यायत्वघटनात् स्वपर्यावेभ्यो द्रव्बेभ्यः सकाशादत्यन्तभेदो न सिद्धयति अत्यन्तभेदे सति समवायवृत्तेः संबंध व्यापारस्य उत्पत्तिर्न । वसः । दि० प्र० । 5 अनन्तपर्यायत्वेपि सत्तायाः पर्यायेभ्यो भिन्नत्वात् सैकानं शैव समवायेन वर्तत एवेत्यत्राह । दि० प्र० । 6 द्रव्यत्वगुणत्वादिसामान्यं कर्तृ अनंशमेकमपि सर्वासु व्यक्तिवृत्तिषु युगपत्प्रवर्तते इत्युक्त परवादिना तत् स्याद्वादिना परिहियते । एवं न । कुतस्तस्यापि द्रव्यत्वादेरपि द्रव्यत्वादि आश्रयस्वभावत्वेन कथञ्चित्सांशत्वानेकत्वं प्रतीयते यतः । दि० प्र० । 7 अपरं । सत । व्या० प्र० | व्यक्तीनां पर्यायाणां वृत्तयः व्यक्तिवृत्तयः । व्यक्तीर्व्यक्ती: प्रतिवृत्तिः व्यक्तिवृत्तिः । दि० प्र० । 8 आश्रयस्य सांशत्वादनेकत्वाच्च तस्यापि तथात्वम् । ब्या० प्र० । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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