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________________ ३८ ] अष्टसहस्री [ द्वि० ५० कारिका २८ 'संयोगविभागपरत्वापरत्वान्यपि नानेकवृत्तानि युगपदुपपद्यन्ते प्रतियोग्यादिसंयोगादिपरि. णामप्रतीते: सादृश्योपचारादेकत्वव्यवहारात् । 'द्वित्वादिरनेकद्रव्यवृत्तियुगपदित्यप्यप्रातीतिक, प्रतिव्यक्ति सकलसंख्यापरिणामसिद्धेः क्वचिदेकत्र तदसिद्धौ परापेक्षयापि तद्विशेषप्रतीत्ययोगात् 'खरविषाणवत् । ततो न पृथक्त्वमनेकत्र युगपद्वर्तते गुणत्वाद्रूपादिवत् । न संयोगादिभिरनेकान्तः' , तेषामप्यनेकद्रव्यवृत्तीनां सकृदनशानामसिद्धेः । तदनेन पृथक्त्वैकान्तपक्षेपि पृथक्त्ववतोः 11पृथक्त्वात्पृथक्त्वे तौ तद्वन्तावपृथगेव14 स्याताम् । तथा च न पृथक्त्वं ऐसा कहें, कि जैसे ये गुण एक होने से स्वयं निरंश हैं और युगपत् अनेकानुगत हैं तथैव पृथक्त्व गुण भी एक और निरंश होकर युगपत् अनेकानुगत मान लिया जाये सो ऐसा कहना ठीक नहीं है ये गुण भी प्रत्येक द्रव्यनिष्ठ हैं क्योंकि संयोग, विभाग, परत्व एवं अपरत्वरूप से प्रत्येक द्रव्य का परिणमन होता है। जो गुण जिनका होता है वे उसके प्रतियोगी--जिनका संयोग धे जिनका विभाग वे विभाग के प्रतियोगी इत्यादि रूप प्रतियोगियों में संयोग अ का परिणमन होगा अर्थात् संयोगादि जिसमें रहते हैं वे परिणामी हैं और संयोग आदि उनके परिणाम हैं अतः यदि परिणामी एक है तो उसका परिणाम भी एक होगा। संयोगी आदि परिणामी अनेक हैं अत: उनके संयोग आदि परिणाम भी अनेक होंगे। अतएव संयोग आदि एक होकर अनेक में एक साथ नहीं रह सकते, किंतु वे स्वयं अनेक होते हुये अनेक में एक साथ रहते हैं। संयोग, विभाग, परत्व एवं अपरत्व में जो एकपने का व्यवहार होता है वह औपचारिक है वास्तविक नहीं है और उस उपचार में निमित्त सदृशता है। उस सदृशता से ही वे एक कहे जाते हैं। नैयायिक-द्वित्व, त्रित्व आदि गुण एक हैं, निरंश हैं, फिर भी युगपत् अनेक द्रव्यों में रहते हुये पाये जाते हैं। __ जैन-आपका यह कथन भी प्रतीति सिद्ध नहीं है, क्योंकि व्यक्ति-व्यक्ति के प्रति सकल संख्याओं का भेद सिद्ध है। कहीं एक जगह खर विषाणादि में उस संख्या की असिद्धि के होने पर पर की अपेक्षा से- अपर संख्येय की अपेक्षा से भी उन विशेष द्वित्व आदि गुणों की प्रतीति का अभाव है। जैसे कि गधे के सींग का अभाव है अर्थात् जो वस्तु एक है उसमें एकत्व संख्या के अलावा द्वित्वादि 1 स्याद्वाद्याह संयोगादीनि चत्वारियुगपदनेकवृत्तीनि नोत्पद्यते कस्मात् । संयोगिनं संयोगिनं प्रति, प्रतिसंयोगि प्रतिविभागि । आदिर्यस्य सः प्रतिसंयोग्यादिस्तस्य संयोगविभागादिस्वभावप्रतीते:सादश्योपचारादेकत्वव्यवहारो घटते । दि० प्र० । 2 निरंशानि सन्ति । दि० प्र० । 3 संयोगादे: । दि० प्र० 1 4 संख्येय । दि० प्र० । 5 परोनुमानं रचयति । पृथक्त्वं पक्षोऽनेकत्र युगपद् वर्तते इति साध्यं गुणत्वात् । यथारूपादिः । स्याद्वाद्याह एवं म । दि० प्र०। 6 पदार्थानाम् । दि० प्र०। 7 खरविषाणादेर्यथा संख्या परिणामसिद्धिस्तथेति संबंधः। दि० प्र०। 8 गगनादिभिर्व्यभिचारो न भवेद्यतः । दि० प्र०। 9 गुणत्वादिति हेतोय॑भिचार: न। दि० प्र०। 10 उक्तसन्दर्भेण । ब्या० प्र० । 11 गुणात् । ब्या० प्र०। 12 भेदे । ब्या० प्र०। 13 पृथकत्वगुणवन्तौ । दि० प्र० । 14 अभिन्ना एव । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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