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________________ अष्टसहस्री ३६ 1 [ द्वि० प० कारिका २८ पृथक्त्वस्य तद्गुणत्वात् पृथगिति प्रत्ययस्य तदालम्बनत्वान्न तेषामपृथक्त्वप्रसङ्ग इति चेन्न, तस्य कथंचित्तादात्म्यापत्तेः पृथक्त्वैकान्तविरोधात् । तद्गुणगुणिनोरतादात्म्ये घटपटवव्यपदेशोपि मा भूत्, संबन्धनिबन्धनान्तराभावात्' । कथंचित्तादात्म्यमेव ' हि तयोः संबन्ध - निबन्धनं न ' ततोन्यत्संभवति । समवायवृत्तिः संभवतीति चेन्न समवायस्य कथंचिदविष्वग्भावादपरस्य प्रतिक्षेपात्' । पृथक्त्वमन्यद्वा पृथग्भूतमनंशमनेकस्थेषु निष्पर्यायं वर्तते इति दुरवगाहम्' । न ह्यनेकदेशस्थेषु हिमवद्विन्ध्यादिषु सकृदेकः परमाणुर्वर्तते इति संभवति । अन्तस्तत्व हैं वे सब निरन्वय विनश्वर - मूलतः नाशशील हैं तथा सजातीय और विजातीय ये सर्वथा व्यावृत्त - जुदे - जुदे हैं । इस प्रकार इन सभी का भिन्नैकांत पक्ष ही पृथक्त्वकांत पक्ष है । यहाँ पहले वैशेषिक और नैयायिक का खण्डन किया जा रहा है | वैशेषिक -- यह पृथक्त्वगुण उन पदार्थों का गुण है इसलिये “पृथक् " इस प्रकार का ज्ञान उस पृथक्त्वगुण के आधीन है अतएव उन पदार्थों में अपृथक्त्व - अभिन्नपने का प्रसंग प्राप्त नहीं होता है । जैन - ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि उस पृथक्त्वगुण का द्रव्य के साथ में कथंचित् तादात्म्य का प्रसंग हो जाने से पृथक्त्वकांत पक्ष का विरोध हो जायेगा । " तथा उन गुण और गुणी में तादात्म्य ( सर्वथा भेद) के न मानने पर तो घट और पट के समान "यह इसका गुण है" इत्यादि व्यपदेश भी नहीं हो सकेगा क्योंकि उन भिन्न-भिन्न में सम्बन्ध को कराने के लिये अन्य कारणों का अभाव है” अतः कथंचित् तादात्म्य ही उन गुण और गुणी में सम्बन्ध का कारण है, उससे भिन्न और कुछ भी संभव नहीं है । वैशेषिक - हमारे यहाँ समवाय सम्बन्ध से उनमें वृत्ति संभव है । जैन - ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि कथंचित् अविष्वग्भाव - तादात्म्यरूप समवाय को छोड़कर अन्य प्रकार से आपके माने हुये समवाय का तो हमने खण्डन ही कर दिया है । “तथा पृथक्त्वगुण अथवा अन्य संयोगादि गुण पदार्थों से पृथग्भूत हैं । स्वयं अनंश - अंश कल्पना से रहित है । फिर भी अनेक द्रव्यों में निष्पर्यायरूप से रहते हैं यह कथन भी दुखगाह - अति असंभव है ।" अर्थात् यह पृथक्त्वगुण द्रव्यादि से अलग है अंशकल्पना से रहित है फिर भी अनेकों में एक साथ रहता है यह सब कथन परस्पर विरुद्ध है क्योंकि जो अनेकों में रहता है उसके उतने ही भेद होना शक्य है । ऐसा तो कहीं देखने में नहीं आता है कि एक निरंश परमाणु युगपत् अनेक देशस्थ हिमवान् और विध्याचल आदिकों में रहे अर्थात् ऐसा युगपत् संभव नहीं है । I पदार्थानां पृथकत्वमिति । न केवलं गुणगुणिनोर्भावः । दि० प्र० । 2 तादात्म्यात् अपरस्य संबन्धान्तरस्य । दि० प्र० । 3 तयोर्गुणगुणिनोः केवलं कथञ्चित्तादात्म्यं संबन्धकारणं भवति । ततः कथञ्चित्तादात्म्यात्सकाशात् । अन्यत् संबन्धकारणं कि संभवति इति क्वा क्वा व्याख्येयमपितु न संभवति । दि० प्र० । 4 संबन्धनिबन्धनं ततोऽन्यत् संभवतीति पाठ० । दि० प्र० । 5 निराकरणात् । दि० प्र० । 6 पृथग्वादिनो मतं दुर्बोधम् । दुखबोधम् । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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