SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 114
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पृथक्त्व एकांत का खण्डन ] तृतीय भाग [ ३५ कान्तः पृथक्त्वैकान्तः, सजातीयविजातीयव्यावृत्ता निरन्वयविनश्वरा बहिरन्तश्च' परमाणवः इत्यभिनिवेशश्च । [ वैशेषिकनैयायिकाभ्यां स्वीकृतं भेदपक्षं निराकुर्वन्ति जैनाचार्याः। ] तत्र येषां पृथक्त्वगुणयोगात् पृथक् पदार्था इत्याग्रहस्ते एवं तावत्प्रष्टव्याः । --किं पृथग्भूतपदार्थेभ्यः पृथक्त्वं गुणः पृथग्भूतोऽपृथग्भूतो' वा ? न तावदुत्तरः पक्षो गुणगुणिनोर्भदोपगमात् । नापि प्रथमः पृथग्भूतपदार्थेभ्यः पृथक्त्वस्य पृथग्भावे तेषामपृथक्त्वप्रसङ्गात् । [ वैशेषिक और नैयायिक के भेद पक्ष का जैनाचार्य खण्डन करते हैं। ] इन तीनों में से जो वैशेषिक और नैयायिक पृथक्त्वगुण के योग से पदार्थों को पृथक् मानते हैं । उन्हें ही हम इस प्रकार से पूछते हैं कि-पृथग्भूत पदार्थों से यह पृथक्त्वगुण पृथक्भूत है या अपृथग्भूत ? . इनमें द्वितीय पक्ष तो ठीक नहीं है क्योंकि गुण और गुणी में आपने सर्वथा भेद ही स्वीकार किया है, तथैव प्रथम पक्ष भी ठीक नहीं है-"क्योंकि पृथकभूत पदार्थों से पथक्त्वगुण को पृथक मानने पर उन द्रव्य, गुण आदि पदार्थों में अपृथक्-अभिन्नपने का प्रसंग आ जायेगा।" भावार्थ-वैशेषिक के यहाँ द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव ये ७ पदार्थ हैं। इसमें द्रव्य के भेद, गुण के २४ भेद, कर्म के ५, सामान्य के २ भेद, विशेष के अनन्त भेद एवं समवाय के ६ तथा अभाव के ४ भेद हैं। नैयायिक ने १६ पदार्थ माने हैं-प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टांत, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रहस्थान । वैशेषिक के गुण नामक पदार्थ के २४ भेद हैं उनके नाम-स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, शब्द, संख्या, विभाग, संयोग, परिमाण, पृथक्त्व, परत्व, अपरत्व, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म, संस्कार, स्नेह, गुरुत्व, द्रव्यत्व और वेग । इनमें संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व आदि गुण माने गये हैं। ऊपर के २४ प्रकार के गुणों में पृथक्त्व नाम का एक गुण है जो कि इन समस्त पदार्थों को परस्पर में भिन्न-भिन्न करता है ऐसी उनकी मान्यता है । इसी तरह बौद्धों का भी यही कहना है कि जितने घट-पटादिरूप बाह्य पदार्थ एवं ज्ञानादिरूप 1 अचेतनानां चेतनानाम् । दि० प्र०। 2 सौगताभिप्रायेण पृथकत्वकान्तसूचनं कथं बहिःपरमाणवः अन्तःपरमा. णवश्च सजातीयविजातीयभिन्ना भवन्ति निरन्वयविनश्वरादित्याग्रहः =तत्र तस्मिन्नाग्रहे सति येषां योगादीनां पृथकत्वगुणसंबन्धात् पदार्थाभिन्नास्त एवं पष्ट व्याः । दि० प्र० । 3 योगाभ्युपगतः । दि० प्र०। 4 इति प्रश्नः । दि० प्र० । 5 अपृथग्भूतः । दि० प्र०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy