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________________ ३२ ] अष्टसहस्री [ द्वि० ५० कारिका २६ अद्वैतवाद खण्डन का सारांश ब्रह्माद्वैतवादियों का कहना है कि सभी विश्व परमब्रह्म स्वरूप से अद्वैतरूप है एवं अनुमान और आगम प्रमाण से सिद्ध है, "जो अंतर्बहिवस्तु प्रतिभाससमानाधिकरण है वे प्रतिभास के अन्तः प्रविष्ट हैं जैसे प्रतिभास का स्वरूप ।" तथा सर्व वै खल्विदं ब्रह्म इत्यादि आगम से भी सिद्ध है। यदि जैनादि ऐसा कहें कि अद्वैत में प्रत्यक्ष से कारक क्रिया आदि भेद पाये जाते हैं इसलिये द्वैत आ गया सो यह कथन भी ठीक नहीं है क्योंकि ये क्रिया, कारक आदि भेद, एवं अनुमान वाक्य में पक्ष, हेतु दृष्टांत आदि भेद एवं प्रत्यक्ष अनुमान आगम आदि सब उस परमब्रह्म से अभिन्न ही हैं __ अविद्या से कल्पित हैं इसलिये पुण्य-पाप, सुख-दुःख, बंध-मोक्ष, विद्या-अविद्या आदि द्वैत अविद्या से ही कहे गये हैं। तथा वह अविद्या तो निःस्वरूप है अतः उससे द्वितीयपने का अभाव है। जैसे इन्द्रजालिया के मायामयी धूमादि। कहा भी है-"न बंधोस्ति न वै मोक्ष इत्येषा परमार्थता" अतएव प्रतिभास रूप परब्रह्म ही तात्त्विक है। इस पर जैनाचार्यों ने बड़े ही सुन्दर ढंग से समाधान किया है। पहले वे पूछते हैं कि आपके इस अद्वैत में क्रिया कारक आदि भेद हैं वे अजन्मा हैं या जन्मवान् ? यदि अजन्मा कहो तो नित्य हो जायेंगे, यदि जन्मवान् कहो तो किससे उत्पन्न हुये ? ब्रह्मा से ही कहो तो स्वतः से कोई स्वयं आज तक उत्पन्न नहीं हुआ है यदि पर से कहो तो ब्रह्मा से भिन्न पर होने से द्वैत हो गया तथा यदि कहो कि ये भेद न स्वत: उत्पन्न हुये हैं न पर से, किन्तु उत्पन्न अवश्य हुये हैं तब तो यह बात भी हास्यास्पद ही है इसलिये ये सभी भेद अद्वैत में सिद्ध नहीं होते हैं तथा आपने जो अनुमान में कहा है कि "सभी चेतनाचेतन पदार्थ प्रतिभास के अंतः प्रविष्ट हैं जैसे प्रतिभास का स्वरूप" यह अनुमान भी अपने अद्वैत से विरुद्ध द्वैत को ही सिद्ध करता है प्रतिभास और उसके स्वरूप से स्वरूप एवं स्वरूपवान् दो हो गये तो द्वैत ही रहा । एवं जो आपने कहा है कि प्रत्यक्ष, अनुमान आगम आदि अविद्या से प्रतिभासित होते हैं तो यह अनुमान भी अविद्या से ही होने से मिथ्यारूप ही सिद्ध हुआ क्योंकि अविद्या से वस्तु भूत तत्त्व सिद्ध नहीं हो सकता है । तथा जो आपने आगम से ब्रह्म को सिद्ध किया सो आगम एवं परमब्रह्म ये दो हो गये। आप कहो कि आगम तो ब्रह्मा का स्वभाव है वह उससे अभिन्न ही है तो भी स्वभाव एवं स्वभाववान् रूप से द्वैत हो ही गया। दूसरी बात यह है कि "द्वाभ्यां-प्रमाण प्रमेयाभ्यां इतं द्वीतं" द्वीतं इंद द्वैतं, न द्वैतं अद्वैतं "इस प्रकार से अद्वैत की सिद्धि वास्तविक द्वैत को सिद्ध कर देती है क्योंकि इसमें" नञ् समास पूर्वक अखण्डपद है अतः द्वैत के बिना अद्वैत कथमपि सिद्ध नहीं हो सकता है, यथा जैन के बिना अजैन । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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