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________________ ब्रह्माद्वैतवाद का खंडन ] तृतीय भाग [ ३१ विद्या नाम यदभ्युपगमे ब्रह्माद्वैतं न विरुध्येत द्वैतप्रतिषेधो वाद्वैताविनाभावी न भवेत् । तदेतेन- शब्दाद्वैतमपि निरस्तं', विज्ञानाद्यद्वैतवत्तस्यापि' निगदितदोषविषयत्वसिद्धेः प्रक्रियामात्रभेदात्', तद्व्यवस्थानुपपत्तेः, स्वपक्षेतरसाधकबाधकप्रमाणाभावाविशेषात् स्वतः सिध्धयोगाद्गत्यन्तराभावाच्च । इत्यलमतिप्रसङ्गिन्या" संकथया", सर्वथैवाद्वैतस्य3 निराकरणात् । तिक्रांत कोई अविद्या नाम की चीज नहीं है कि जिसको स्वीकार करने पर ब्रह्माद्वैत में विरोध न आ जावे । अथवा अद्वैताविनाभावी द्वैत का प्रतिषेध न हो सके अर्थात् ब्रह्माद्वैत में विरोध भी आता है अथवा द्वैत का भी प्रतिषेध हो ही जाता है । इस कथन से शब्दाद्वैत का भी खण्डन कर दिया गया समझना चाहिये क्योंकि विज्ञानाद्वैत आदि के समान ही इस शब्दाद्वैत में भी अद्वैतैकांत पक्ष में दिये गये सभी दोष सिद्ध ही हैं, केवल प्रक्रियामात्र का ही भेद है अतएव उस शब्दाद्वैत की व्यवस्था नहीं बन सकती है क्योंकि स्वपक्ष साधक और परपक्ष बाधकरूप प्रमाणों का अभाव सभी अद्वैतपक्षों में समान ही है, तथा स्वतः तो किसी अद्वैत की सिद्धि हो नहीं सकती है एवं प्रमाणों से सिद्धि तथा स्वतः सिद्धि के सिवा अद्वैत को सिद्ध करने के लिये गत्यंतराभाव-अन्य किसी भी प्रकार के उपायों का ही अभाव है इसलिये इस अतिप्रसंगरूप संकथा से बस हो क्योंकि सर्वथा ही अद्वैत का खंडन कर दिया गया है। 1 यस्याः अविद्यायङ्गीकारे । दि० प्र०। 2 ब्रह्माद्वैतं निराकृतं यतः । ब्या० प्र०। 3 अद्वैतकान्तपक्षपी. त्यादिना । ब्रह्माद्वैतनिराकरणद्वारेण । दि० प्र०। 4 निराकृतम् । ज्ञानाद्वैतं चित्राद्वैतं यथा। दि० प्र०। 5 शब्दातस्यापि । दि० प्र०। 6 पुरुषाम्वितं ज्ञानान्वितं शब्दातमतः कथं प्रत्येक भिन्नत्वात्तत्पक्षभावी । दोषोत्र शब्दाद्वैते अवकाशं लभते । व्या० प्र०। 7 निः प्रति मात्रनाममात्रभेदाद् वा । व्या० प्र०। 8 विवरण । तहि शब्दादेतादयः स्वतः सिद्धा एव वर्तन्त इति चेत् । दि० प्र०। 9 अद्वैतस्य । दि० प्र०। 10 अन्यविकल्पासंभवात् । दि० प्र०।11 अद्वैतस्य । दि० प्र०। 12 कुतः । दि० प्र०। 13 ननु कथञ्चिदद्वैतस्य । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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