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अष्टसहस्री
[ द्वि०प० कारिका २७
निश्चयात् 'स्वप्नाद्यऽविद्यादशायां तदभावात् । ततश्चात्मद्वारेवाविद्या युक्तिमती। यस्मादनुभवादविद्यावानहमस्मीत्यनुभववानात्मा तत एव कथंचित् प्रमाणोत्थविज्ञानाध्बाधिता तदविद्यापि सैवेत्यात्मताविरोधाभावात् । न चात्मनि कथंचिदविदितेप्यविद्येति नोपपद्यते, बाधाऽविरोधात् । कथंचिद्विज्ञातेपि वाऽविद्येति नितरां घटते, विदितात्मन' एव तद्बाधकत्वविनिश्चितेः कथंचिद्बाधिताया बुद्धेम॒षात्वसिद्धेः । न च कथंचिदविद्यावानेव नरस्तामविद्यां निरूपयितुमक्षमः, सकलप्रेक्षावद्व्यवहारविलोपात् । यदपि प्रमाणाघातासहिष्णुत्वमसाधारणलक्षणमविद्यायास्तदपि प्रमाणसामर्थ्यादेव निश्चेतव्यम् । इति न प्रमाणातिक्रान्ता काचिद
"इसकी यह अविद्या है" यह कल्पना भी नहीं हो सकती है क्योंकि सभी जनों को विद्यावस्था में ही अविद्या और विद्या का विभाग निश्चित होता है।
स्वप्नादिरूप अविद्या की दशा में अविद्या और विद्या का विभाग नहीं बन सकता है अतएव । आत्मद्वार (ब्रह्मरूप) के समान ही अविद्या युक्तिमती है। जिस अनुभव से "मैं अविद्यावान् हूँ" इस प्रकार से आत्मा अनुभववान् होता है। उसी हेतु से कथंचित् प्रमाण से उत्पन्न होने वाले विज्ञान से वह अविद्या अबाधित है।
उस अनुभववान् आत्मा की वह अविद्या भी विद्या ही है क्योंकि अपने पने के विरोध का अभाव है अर्थात् अविद्या में स्वसंवेदन ज्ञान से बाधा असंभव है अतः उस विद्या रूप-आत्मत्व लक्षण में विरोध असंभव है । आत्मा को कथंचित् नहीं जानने पर भी "यह अविद्या है" इस तरह का ज्ञान उत्पन्न नहीं हो सकता है ऐसा नहीं है क्योंकि बाधा का विरोध नहीं है अर्थात् किसी अज्ञान से सहित भी आत्मा में अविद्या की उत्पत्ति के मानने पर कोई दोष नहीं है। कारण रजतज्ञानादि में बाधा का विरोध नहीं है। अथवा कथंचित् चैतन्यादिरूप से आत्मा को जान लेने पर भी "यह अविद्या है"यह बात नितरां घटित हो जाती है। क्योंकि आत्मा को जानने वाले के ही उस अविद्या में बाधकपना निश्चित होने से कथंचित्-बाह्य प्रमेय की अपेक्षा से बाधित ज्ञान में मृषापना सिद्ध है और ऐसा भी नहीं है कि कथंचित् (बाह्य प्रमेय की अपेक्षा से) अविद्यावान् मनुष्य उस अविद्या का निरूपण करने में असमर्थ हो। अन्यथा सभी बुद्धिमान् जनों के व्यवहार का विलोप हो जायेगा। यद्यपि आपने पहले यह कहा है कि प्रमाण के द्वारा परीक्षा को सहन करने में असमर्थता ही अविद्या का असाधारण लक्षण है फिर भी यह कथन भी तो प्रमाण की सामर्थ्य से ही निश्चित किया जाता है इसलिये प्रमाणा
1 लक्षण । ब्या० प्र० । सुप्तमत्तमुग्धादि अविद्यावस्थायां तस्य विद्येतरविभागनिश्चयस्यासंभवात् । इति पूर्वस्य हेतुसमर्थपदं ज्ञेयम् । दि० प्र०। 2 अनुभवतीति संबन्धः कार्यः । दि० प्र०। 3 ब्रह्मणः एव । ब्या० प्र० । 4 इदं सत्यमिवेदमसत्यमिति । विचारक। आक्षेपे । ता। दि० प्र०।
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