SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 112
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ब्रह्माद्वैतवाद का खण्डन । तृतीय भाग [ ३३ यदि आप कहें कि अनेकांत भी नञ् समास वाला पद है किन्तु आप एकांत को वास्तविक नहीं मानते हैं कल्पित ही मानते हैं। सो यह कथन भी आपने बिना हमारे तत्त्व को समझे ही कह दिया है क्योंकि हम जैनों के यहां तो सुनय से अर्पित सम्यक एकांत है। एवं अमाया, अखर शब्द आदि भी वास्तविकभूत माया, एवं खर के बिना नहीं होते हैं। इसलिये अद्वैत शब्द वस्तुभूत द्वैत को मान कर उसका निषेध करता है । जो आपने अविद्या को निःस्वरूप कहा वह भी गलत है क्योंकि विद्या के समान अविद्या भी कथंचित् वस्तु रूप ही है बहिःप्रमेय की अपेक्षा से अपने स्वरूप में (सीपादि में रजत ज्ञान के समय) अविद्या रूप हैं। बाधक प्रमाण से जानी जाती है। केवल अंत:प्रमेय की अपेक्षा से वह अविद्या प्रमाण का विषय नहीं है कारण अंतःप्रमेय की अपेक्षा सभी संशय आदि ज्ञान भी प्रमाणाभूत हैं किंतु बहिःप्रमेय की अपेक्षा से विद्या और अविद्या दोनों ही हैं क्योंकि अविद्या, भिन्न (गलत) विद्यारूप है, तुच्छाभावरूप नहीं। तथा ऐसा भी प्रश्न हो सकता है कि वह अविद्या परमब्रह्म से भिन्न है या अभिन्न ? यदि भिन्न है तो द्वैत हो गया, यदि अभिन्न है तो आपका ब्रह्मा भी अविद्यारूप हो गया अतः ब्रह्माद्वैत अविद्या, माया, असत्य काल्पनिक हो जाने से सिद्ध नहीं हुआ किंतु आपके ही शस्त्र से आपका घात हो जाने से हम लोगों को मान्य द्वैत ही सिद्ध हो गया। सार का सार-ब्रह्माद्वैतवादी, शब्दाद्वैतवादी, विज्ञानाद्वैतवादी, चित्राद्वैतवादी, शून्याद्वैतवादी ये पांच अद्वैतवादी हैं ये सारे विश्व को एवं चेतन-अचेतन संपूर्ण पदार्थों को एक ब्रह्म या शब्द या ज्ञान मात्र या चित्रज्ञान या शून्यरूप ही मान लेते हैं और सारी व्यवस्था को अविद्या अथवा कल्पना से कहकर खुश हो जाते हैं किंतु जैनाचार्यों ने इन सबको सभी चेतन-अचेतन वस्तु का वास्तविक रूप से मानने का उपदेश दिया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy