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________________ ब्रह्माद्वैतवाद का खण्डन ] तृतीय भाग [ २५ [ पुरुषाढते वास्तवेन प्रतिषेधव्यवहारोऽसंभव एवेत्यादिना ब्रह्मवादी स्वपूर्वपक्षं विधत्ते । ] . ननु पुरुषाद्वैते परमार्थतः 'प्रतिषेधव्यवहारासंभवात् परोपगतस्य द्वैतस्य परप्रसिद्धन्यायादेवानुमानादिरूपादभावः साध्यते । न च स्वपरविभागोपि तात्त्विकस्तस्याविद्याविलासाश्रयत्वात् । ततो न कश्चिद्दोष इति चेन्न, अविद्याया' एव व्यवस्थापयितुमशक्तेः । 'ननु च न वस्तुवृत्तमपेक्ष्याऽविद्या' व्यवस्थाप्यते, तस्यामवस्तुभूतायां प्रमाणव्यापारायोगात् । परब्रह्मण्यविद्यावति अविद्यारहिते च विद्याया विरोधादानर्थक्याच्च नाविद्याऽस्येत्यप्यविद्यायामेव स्थित्वा प्रकल्पनात्, ब्रह्माधारायास्त्वविद्यायाः कथमप्ययोगात् । यतश्चानुभवाद [ पुरुषाद्वैत में वास्तव में प्रतिषेध का व्यवहार असंभव है इत्यादि रूप से ब्रह्मवादी अपना पूर्वपक्ष रखते हैं। ] __ अद्वैतवादी-पूरुषाद्वैत में परमार्थ से प्रतिषेध व्यवहार ही असंभव है। फिर भी अद्वैत की स्थापना में जो द्वैत का निषेध है वह दूसरों के द्वारा स्वीकृत का ही निषेध है । उन्हीं दूसरों के द्वारा स्वीकृत अनुमान आदि प्रमाणों के द्वारा हम उस द्वैत का अभाव सिद्ध करते हैं। इस प्रकार से यद्यपि स्वपर का विभाग हो जाता है फिर भी वह तात्त्विक नहीं है क्योंकि वह स्वपर विभाग अविद्या के विलास का ही आश्रय करने वाला है इसीलिये हमारे यहाँ प्रतिषेध्य-प्रतिषेधक लक्षण में कुछ भी विरोध नहीं आता है। जैन-ऐसा नहीं कह सकते क्योंकि पहले तो अविद्या की व्यवस्था करना ही अशक्य है अर्थात् तुम्हारी तुच्छाभाव रूप अविद्या कुछ है ही नहीं। ___ अद्वैतवादी वस्तुभूत की अपेक्षा करके हम अविद्या की व्यवस्था नहीं करते हैं किन्तु वह . अवस्तुभूत है तथा उस अवस्तुभूत में प्रमाण के व्यापार का अभाव है । परमब्रह्म को अविद्यावान् और अविद्या से रहित इन दोनों रूप मानने पर तो उसमें श्रवण, मनन, निदिध्यासनरूप विद्या का विरोध भी हो जाता है और अनर्थक दोष भी आता है अर्थात् अविद्या के व्यवच्छेदक ब्रह्म को अविद्यावान कहने पर महान् दोष आता है। "इसमें अविद्या नहीं है" इस प्रकार की कल्पना भी अविद्या में ही रहकर नहीं हो सकती है अर्थात् कल्पनामात्र से ही यह व्यवस्था करना शक्य नहीं है । जैसे कि अन्धकार में स्थित होकर "अन्धकार नहीं है" यह कहना अशक्य है और ! द्वैत । ब्या० प्र० । 2 अन्य रङ्गीकृतस्य। दि० प्र०। 3 न च स्वप्रसिद्धन्यायादेवानुमानादिरूपादभाव: साध्यते । दि० प्र० । 4 स्वपरविभागस्य । दि० प्र० । 5 हे अद्वैतवादिन ! अयं स्वविभाग: अयं परविभाग: एवं सति द्वैतमायाति । इत्युक्त आह । हे स्याद्वादिन् ! स्वपरविभाग: परमार्थभूतो न। कस्मादविद्याविज़म्भणापेक्षात् । दि० प्र० । विज़म्भणः । ब्या०प्र०। 6 अद्वैतेद्वैतप्रतिषेधव्यवहारो यदि न स्यात्तदा स्वपरविभागस्तात्विकः कथं स्यादित्याह । दि० प्र० 17 परमार्थम् । व्या० प्र०। 8 अविद्याया। दि० प्र०। 9 परमब्रह्मण्यविद्यासहिते अविद्यारहिते विद्या विरोधो घटते । आनर्थक्यञ्च कस्मात् अस्य ब्रह्मणः अविद्या न इत्यप्यविद्यायामेव स्थित्वा कल्पनाघटनात् । दि० प्र० । 10 कस्यचिन्नः । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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