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________________ २६ ] अष्टसहस्री [ द्वि० प० कारिका २७ विद्यास्मीति ब्रह्मानुभूतिमत्तत एव 'प्रमाणोत्थविज्ञानबाधिता' सा' तदबाधने तस्या अप्यात्मत्वप्रसङ्गात् । तथा ब्रह्मण्यविज्ञाते तदविद्याव्यवस्थानुपपत्तेर्बाधासद्भावात् विज्ञातेपि' सुतरां तदबाधनादव्यवस्थानं, अबाधिताया "बुद्धेम॒षात्वायोगात् । न चाविद्यावान्नरः कथंचिदविद्यां निरूपयितुमीशश्चन्द्रद्वयादिभ्रान्तिमिव जातितै मिरिकः । तदुक्तं . "ब्रह्माऽविद्यावदिष्ट चेन्ननु दोषो महानयम् । निरवद्ये च विद्याया आनर्थक्यं प्रसज्यते ॥१॥ "इसके अविद्या है अथवा नहीं है" इस प्रकार से अविद्या में स्थित होकर ही जो यह कल्पना है उस कल्पना से भी अविद्या की व्यवस्था करना शक्य नहीं है, यह भाव है। ब्रह्म को आधारभूत अविद्या का भी कथमपि सद्भाव नहीं हो सकता है अर्थात् ब्रह्म में प्रविष्ट हुये पुरुष में अविद्या की व्यवस्था नहीं घटती है कारण कि उस समय तो अविद्या का विनाश ही हो गया है क्योंकि अनुभव से "मैं ब्रह्म अविद्या हूँ" इस प्रकार ब्रह्मानुभूतिमान्– मैं ब्रह्म का अनुभव करने वाला हूँ जब ऐसा ज्ञान होता है तब उसी अनुभव से ही प्रमाण से उत्पन्न हुये ज्ञान से वह अविद्या बाधित हो जाती है। यदि आप कहें कि उस समय भी वह अविद्या बाधित नहीं हुई है तब तो उस अविद्या को आत्मत्व-ब्रह्मत्व का प्रसंग आ जाता है अर्थात्-जिस समय ही यह 'अविद्या है" इस प्रकार की ब्रह्मानुभूति को करने वाला यह मनुष्य हुआ उसी समय ही वह अविद्या नष्ट हो जाती है । जैसे यह रजत नहीं है ऐसा ज्ञान होते ही सीप के चांदी का ज्ञान रूप जो विपर्यय ज्ञान था वह खतम हो जाता है इसीलिये प्रमाण से उत्पन्न ज्ञान से वह अविद्या बाधित हो जाती है। उसी प्रकार से ब्रह्मा को नहीं जानने पर उसमें अविद्या की व्यवस्था नहीं बन सकती है क्योंकि उस अविद्या में बाधा का सद्भाव है। _उस ब्रह्मा को सुतरां जान लेने पर भी वह अविद्या बाधित नहीं होती है तब व्यवस्था नहीं बन सकती। मतलब यदि ब्रह्मा को जान लेने पर भी अविद्या अनुभव में आती है तब तो वह अविद्या न होकर विद्या ही हो जाती है अतः उस अविद्या की व्यवस्था नहीं हो सकती क्योंकि जो अबाधित बुद्धि है उसे असत्य नहीं कह सकते हैं अर्थात् ब्रह्म को ब्रह्मरूप से जान लेने पर वह बाधा रहित सत्य ही कहलायेगा पुन: उसे अविद्या कैसे कहेंगे? एवं अविद्यावान् मनुष्य किसी भी प्रकार से अविद्या को निरूपण करने में समर्थ नहीं है। जैसे जिसको तिमिर रोग हुआ है वह मनुष्य चंद्रद्वय आदि की भ्रांति का वर्णन नहीं कर सकता है। कहा भी है श्लोकार्थ-यदि ब्रह्मा को अविद्यावान् स्वीकार करो तब तो यह महान् दोष आयेगा और अविद्या से रहित उस ब्रह्मा को मानने पर तो विद्या अनर्थक हो जायेगी ।।१।। 1 सत्यज्ञान । दि० प्र० । 2 परिच्छित्ति । दि० प्र०। 3 अविद्या । दि० प्र०। 4 तस्या अविद्याया अबाधने सति तस्या अविद्याया अध्य त्मत्वं ब्रह्मत्वं प्रसजति । दि० प्र०। 5 अविद्याज्ञातत्वात् । ब्रह्मणि सति । दि० प्र०। 6 प्रमाणप्रमिताया: बुद्ध रसत्यत्वं न घटते । दि० प्र०। 7 अविद्यात्व । दि० प्र० । 8 यथा दोषदूषितचक्षुः पुमान् चन्द्रद्वयादि भ्रान्तिं निरूपयितमीशो न । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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