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________________ अष्टसहस्री २४ ] [ द्वि० प० कारिका २७ नपूर्वग्रहणात् केवलेन' शब्देन 'व्यभिचारो निरस्तः', पदांशेनाखण्डग्रहणात् । अखरविषाणादिशब्देन च न । ततो नात्र किंचिदतिप्रसज्यते, तादृशो नो 'वस्तुप्रतिषेधनिबन्धनत्वात् । न 'ह्यखण्डपदविशेषणस्य' नत्र : क्वचिदवस्तुप्रतिषेधनिबन्धनत्वमुपलब्धं', पदान्तरोपहितपदविशेषणस्यैव। तथा प्रतीतेरखरविषाणमित्यादिवत् । अत एव12 सर्वत्र प्रतिषेध्यादते संज्ञिनः प्रतिषेधाभावः प्रत्येतव्यः । न हि खरविषाणं संज्ञि किंचिदस्ति येन तस्यापि सत एव कथंचित् प्रतिषेधः प्रसज्यते । है अत: अद्वैत अनेकांत, अमाया, अखर आदि अखण्ड एक पद हैं वे अपने प्रतिषेध्य द्वैत, एकांत आदि के बिना नहीं हो सकते हैं। "यहाँ इस कथन में किंचित् भी अतिप्रसंग दोष नहीं आता है क्योंकि उस प्रकार से अखण्ड पद विशेषण वाला नज् समास वस्तु के प्रतिषेध का निमित्तक ही है" एवं वह अखंड पद वाला नञ् समास कहीं पर भी अवस्तु के प्रतिषेध का निबंधनक नहीं पाया जाता है, किन्तु पदांतर से संबंधित पद विशेषण वाला ही अवस्तू के प्रतिषेध का निमित्तक पाया जाता है जैसे "अख खरविषाणं" इत्यादि पद, अतएव" "सर्वत्र प्रतिषेध करने योग्य वस्तु के बिना संज्ञी-नामवाली वस्तु के प्रतिषेध का अभाव जानना चाहिये" अर्थात् प्रतिषेध करने योग्य वस्तु के बिना सत् रूप किसी भी वस्तु में प्रतिषेध नहीं हो सकता है । खरविषाण नामवाली कोई वस्तु तो है नहीं कि जिससे उसका भी सत्रूप के सदृश ही कथंचित्-पररूप की अपेक्षा से प्रतिषेध हो सके अर्थात् खर विषाण मूल में ही वास्तविक संज्ञी पदार्थ नहीं है । तब उसका प्रतिषेधक जो अखरविषाण शब्द है वह भी अवस्तुभूत ही है। किन्तु अद्वैत शब्द वैसा नहीं है उसमें वस्तुभूत द्वैत का प्रतिषेध करने में आया है अतः द्वैत के नहीं मानने पर उसका प्रतिषेधक अद्वैत यह शब्द निष्पन्न ही नहीं हो सकता है और न संज्ञी द्वैतरूप प्रतिषेध्य के बिना उसका प्रतिषेध ही हो सकता है कि जिससे सर्वथा अद्वैतकांत की सिद्धि हो सके। 1 ब्रह्मशब्दः स्वाभिधेयप्रत्यनीकाविनाभावी न भवतीत्यद्वैतवादिना स्वमतानुसारेणैवोद्भावितव्यभिचारो निरस्त इत्यवगन्तव्यम् । स्याद्वादिनां तु केवलस्यापि शब्दस्य स्वाभिधेयप्रत्यनीकपरमार्थापेक्षकत्वसिद्धेः । दि० प्र०। 2 विकलपदेनाखरविषाणादि पदेन व्यभिचारो निरस्त: अखण्डपदग्रहणादिति संबन्धः । दि० प्र०। 3 अत्राह परः हे स्याद्वादिन् । नञ् पूर्वाखण्डपदत्वादिति हेतोः । अखरविषाणादिशब्देन व्यभिचारो घटते। जैनः । एवं न। कस्मात्पदांशेन खण्डग्रहणात् । अत्र नविषाणयोः खरशब्देन खण्डं जातं ततस्तस्मादत्रानुमाने किञ्चिद्वस्तु नास्ति यतः अति प्रसंग: क्रियते । दि० प्र०। 4 नञ् पूर्वाखण्डपदत्वादिति हेतोरखरविषाणादावप्रवृत्तेस्तेनव्यभिचारो निरस्तो यस्मात्तस्मान्नात्र तो किञ्चिदख रविषाणादिकमतिप्रसज्यते विद्यमानं स्यादिति शेषः । ब्या० प्र०। 5-दांशेनाखण्डलक्षणस्य न: वस्तुभूतनिषेधकारणत्वं वर्तते । दि० प्र० । 6 वस्तुप्रतिषेधनिबन्धनत्वमेव इत्यायातम् । दि० प्र० । 7 अखण्डपदविशेषस्य । दि० प्र०। 8 ता। दि० प्र० । 9 केन खरविषाणस्यापि विद्यमानस्यैव कथञ्चिन्निषेधः । प्रसज्यते अपितु न । किन्तु सर्वथा प्रतिषेधः । दि० प्र० । 10 पदान्तरेण खरशब्देनोपहितं युक्तं पदं विषाणशब्द: तस्य विषाणस्यैव नञः तथा प्रतीतिरवस्तुप्रतिषेधनिबन्धनत्वं दृश्यते । यथा अखरविषाणमवन्ध्यासुत: अखकुसुमम् । दि० प्र० । 11 नत्वखण्डपदविशेषणीभूतस्य नबः । ब्या०प्र०। 12 अवस्तुप्रतिषेधाभावात । वस्तुप्रतिषेधसभावात)। देशे । दि० प्र०। 13 केन खरविषाणस्यापि विद्यमानस्यैव कथञ्चिन्निषेधः प्रसज्यते अपितु न । किन्तु सर्वथा प्रतिषेधः । दि० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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