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________________ जयपराजय व्यवस्था ] प्रथम परिच्छेद [ २६ प्रतिवादी पराजयप्राप्ति लक्षयेत् तदा स्वपक्षं साधयन्नसाधयन्वा ? प्रथमपक्षे स्वपक्षसिध्द्यव परस्य पराजितत्वाद्वचनाधिक्योद्धावनमनर्थकं, तस्मिन् सत्यपि 'पक्षसिद्धिमन्तरेण जयायोगात् । द्वितीयपक्षे तु युगपद्वादिप्रतिवादिनोः पराजयप्रसङ्गो जयप्रसङ्गो वा, स्वपक्षसिद्धेरभावाविशेषात् । स्यान्मतं' 'न स्वपक्षसिध्द्यसिद्धिनिबन्धनौ जयपराजयौ, “तयोर्ज्ञानाज्ञाननिबन्धनत्वात् । तत्र साधर्म्यवचने वैधर्म्यवचनेपि 'वार्थस्य 'प्रतिपत्तौ तदुभयवचनात्साधनवचनसामर्थ्याज्ञानं वादिनः स्यादेव । प्रतिवादिनस्तु तदुद्भावयतस्तज्ज्ञानम् । अतस्तद्धेतुको यदि पुनः अपने पक्ष को सिद्ध न करते हुये वादी को प्रतिवादी वचनाधिक्य से पराजित कहे, तब तो हम यह प्रश्न करते हैं, कि वह प्रतिवादी अपने पक्ष को सिद्ध करते हुये वचनाधिक्य से वादी की पराजय सिद्ध करता है या अपने पक्ष को सिद्ध न करते हुये ? यदि प्रथम पक्ष लेवें तब तो प्रतिवादी के अपने पक्ष की सिद्धि से ही पर (वादी) की पराजय हो जाती है, पुनः वचनाधिक्य को दोष कहना व्यर्थ ही है, क्योंकि वादा में वचनाधिक्य होने पर भी यदि प्रतिवादी ने अपने पक्ष की सिद्धि नहीं की है, तब तो उसकी जय नहीं हो सकती है। यदि द्वितीय पक्ष लेवें कि प्रतिवादी अपने पक्ष को सिद्ध न करते हुये वचनाधिक्य से वादी की पराजय करना चाहता है तब तो युगपत् ही वादी एवं प्रतिवादी दोनों के पराजय का प्रसंग होगा अथवा दोनों के ही जय का प्रसंग होगा क्योंकि स्वपक्ष की सिद्धि का अभाव दोनों को ही समानरूप से है। बौद्ध -'जय और पराजय, स्वपक्ष की सिद्धि और असिद्धि के निमित्त से नहीं हैं किन्तु ज्ञान और अज्ञान के निमित्त से ही होते हैं क्योंकि साधर्म्य (अन्वय, वचन के बोलने में अथवा वैधर्म्य (व्यतिरेक) वचन के बोलने पर भी साध्य-अर्थ का ज्ञान होने पर भी उन अन्वय-व्यतिरेक रूप दोनों वचनों का प्रयोग कर देते हैं अतः वादी को हेतु वचन की सामर्थ्य का अज्ञान ही है और प्रतिवादी के तो वचनाधिक्य दोष को प्रकट करते हुये उसका ज्ञान है अतएव वादी, प्रतिवादी का जय-पराजय, ज्ञान-अज्ञान निमित्तक है । यह कथन अयुक्त कैसे हो सकता है ? अर्थात् युक्त ही है। जैन-इस विषय की परीक्षा करने पर आपका मत ठीक नहीं है। अन्यथा वादी- प्रतिवादी को पक्ष-प्रतिपक्ष का ग्रहण करना व्यर्थ ही हो जावेगा क्योंकि किसी एक पक्ष में भी ज्ञान-अज्ञान दोनों सम्भव हैं । शब्दादिक में नित्यत्व अथवा अनित्यत्व के ज्ञान-अज्ञान की परीक्षा में एक को (वादी को) उसका ज्ञान है और अपर (प्रतिवादी) को उसका अज्ञान है, वही जय अथवा पराजय के लिये कारण सम्भव नहीं है । ऐसा आप नहीं कह सकते, साधन की सामर्थ्य के ज्ञान-अज्ञान के समान । युगपत् साधन की सामथ्र्य का ज्ञान हो जाने पर वादी और प्रतिवादी इन दोनों में से किसका जय अथवा 1 स्वपक्ष इति पा० । (दि० प्र०) 2 द्वयोरपि वादिप्रतिवादिनोः। 3 सौगतस्य। 4 जयपराजययोानाज्ञाने द्वे कारणे भवतः । यतः । (दि० प्र०) 5 ज्ञानाज्ञानयोः । (दि० प्र०) तथा सति । (ब्या० प्र०) 6 साध्यस्य । 7 ईप् । (दि० प्र०) 8 साधर्म्यवैधयेत्युभयवचनात् । 9 बचनाधिक्यम् । तत् साधनवचनसामर्थ्याज्ञानं प्रकटयतस्तज्ज्ञानं (साधनवचनसामर्थ्यज्ञानमिति (टिप्पण्यन्तरम्)। 10 अतः कारणात्तयोर्वादिप्रतिवादिनोस्तद्धेतूको ज्ञानाज्ञाननिमित्तौ जयपराजयी अयुक्तौ कथं स्यातामपितु न स्यातामित्युक्तं सौगतेन । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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