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________________ ३० ] अष्टसहस्री [ कारिका ७ तयोर्जयपराजयौ कथमयुक्तौ स्याताम् ?' इति, तदपि न परीक्षाक्षम वादिप्रतिवादिनोः पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहवैयर्थ्यप्रसङ्गात् 'क्वचिदेकत्रापि पक्षे ज्ञानाज्ञानयोः सम्भवात् । न हि शब्दादौ नित्यत्वस्यानित्यत्वस्य वा ज्ञानाज्ञानपरीक्षायामेकस्य तद्विज्ञानमपरस्य तदविज्ञानं जयस्य पराजयस्य वा निबन्धनं न सम्भवति साधनसामर्थ्यज्ञानाज्ञानवत् । 'युगपत्साधनसामर्थ्यज्ञाने च वादिप्रतिवादिनोः कस्य जयः पराजयो वा स्यात् ? 'तदविशेषात् । न कस्यचिदिति चेतहि 10साधनवादिनो वचनाधिक्यकारिणो यथा साधनसामर्थ्याज्ञान तथा प्रतिवादिनोपि वचनाधिक्यदोषोद्भावनात् तस्य तद्दोषमात्रे" ज्ञानसिद्धेः । न हि यो यद्दोषं वेत्ति स तद्गुणमपि, 1'कुतश्चिन्मारणशक्तौ विदितायामपि विषद्रव्यस्य कुष्टापनयनादिशक्तौ 13वेदनानुदयात् । ततो किसका पराजय माना जावेगा क्योंकि साधन सामर्थ्य का ज्ञान दोनों में समानरूप से है। अर्थात् यदि साधन की सामर्थ्य का ज्ञान ही जय में हेतु है और अज्ञान पराजय में हेतु है तब तो वादी और प्रतिवादी दोनों को युगपत् साधन सामर्थ्य का ज्ञान होने से किसका जय अथवा किसका पराजय होगा ? क्योंकि साधन की सामर्थ्य का ज्ञान तो दोनों में समान है। बौद्ध-ऐसी स्थिति में तो किसी की भी जय एवं पराजय नहीं होगी। जैन-तब तो साधनवादी हम जैन लोग तो अधिक वचन बोलने वाले हैं, तो जिस प्रकार से हमें साधन की सामर्थ्य का अज्ञान है, उसी प्रकार से उसके भी वचनाधिक्यरूप दोष का उद्भावन करने वाले आप प्रतिवादी को भी उतने दोषमात्र का ही ज्ञान सिद्ध है किन्तु आपको साधन के गुणों का ज्ञान नहीं है, अतः साधन के गुण का अज्ञान होने से आपको भी कुछ अज्ञान तो रह ही गया, क्योंकि "जो जिसके दोष को जानता है वह उसके गणों को भी जाने" यह नियम नई विषद्रव्य की मारण शक्ति को जान लेने पर भी उस विषद्रव्य की कुष्ट आदि रोग को दूर करने की शक्ति का ज्ञान किसी को नहीं भी रहता है इसीलिये ज्ञान और अज्ञानमात्र से ही जय अथवा पराजय की व्यवस्था नहीं हो सकती है। बौद्ध-आप साधनवादी को सम्यक् साधन का प्रयोग करना चाहिये और हम दूषणवादी प्रतिवादी को उसमें दूषण देना चाहिये । इस प्रकार की व्यवस्था में प्रतिवादी के द्वारा सभा में वादी के प्रति असाधनाङ्ग वचनरूप दोष (साधर्म्य वचन का प्रयोग करने पर वैधर्म्य वचन का प्रयोग करना) का उद्भावन करने पर उसे ठीक से साधन वचन के अज्ञान की सिद्धि होने से उस वादी का 1 वादिप्रतिवादिनोः । (ब्या० प्र०) 2 तयोर्ज्ञानाज्ञाननिबन्धनत्वमपि। (ब्या० प्र०) 3 नित्येऽनित्ये वा भेदेऽभेदे वा एकस्मिन्क्वचित्पक्षे। 4 वैयर्थ्यप्रसङ्ग हेतुः। 5 वादिनः। 6 प्रतिवादिनः। 7 भो सौगत यदि साधनसामर्थ्यज्ञानं जयस्य हेतुस्तदज्ञानं तु पराजयस्य तदा। 8 ज्ञानेनैव इति पा० । (दि० प्र०) 9 साधनसामर्थ्यज्ञानाविशेषात् । 10 जनस्य । 11 साधनगुणे ज्ञानाभावो दूषणं चेति भावः । 12 न हि यो यद्दोषं वेत्ति स तद्गुणमपि विषयद्रव्यस्य कुष्टापनेति पाठान्तरम् । (दि० प्र०) 13 ज्ञान । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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