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अष्टसहस्री
[ कारिका ७
प्रसाधयतः केवलं वचनाधिक्योपालम्भच्छलेन पराजयाधिकरणप्राप्तिः2 स्वयं निराकृत'पक्षण प्रतिपक्षिणा 'लक्षणीयेति वचनात् । यथोक्तेन' हि साधनसामर्थ्येन स्वपक्षं साधयतः सद्वादिनः सभ्यसमक्षं जय एवेति युक्तं, न केवलं वचनाधिक्योपालम्भव्याजेन पराजयाधिकरणप्राप्तिः साधीयसी', 1 स्वसाध्यं प्रसाध्य नृत्यतोपि दोषाभावाल्लोकवत् । सा' च स्वयं निराकृतपक्षण प्रतिवादिना लक्षणीयेत्यपि न युक्तं, परेण निराकृतपक्षस्यव18 पराजयप्राप्तियोग्यत्वनिश्चयाल्लोकवदेव । यदि पुनः स्वपक्षमसाधयतो वादिनो वचनाधिक्येन
जैन-"विपक्ष से व्यावृत्तिलक्षण वाले ऐसे हेतु की सामर्थ्य से पक्ष को सिद्ध करते हुये वादी को केवल वचनाधिक्य की उलाहना के बहाने से पराजय के अधिकरण की प्राप्ति कराना एवं स्वयं वादी के द्वारा जिसका पक्ष खण्डित किया गया है, ऐसे आप (प्रतिवादी) उस (वादी) की पराजय लक्षित करें-मानें यह उचित है ? अर्थात् इस प्रकार से वादो का पराजय मानना आप प्रतिवादी को उचित है क्या ? नहीं है यहाँ ऐसी वक्रोक्ति है।"
भावार्थ-यदि वादी ने प्रतिवादी का पक्ष खण्डित कर दिया है, तब तो अपने पक्ष की सिद्धि से ही वादी की जय होती है परन्तु वादी ने वचन अधिक बोले हैं यानी प्रतिज्ञा, उपनय, निगमन आदि का प्रयोग कर दिया है अतः उसकी पराजय हो गयी। आप, प्रतिवादी को ऐसा कहना ठीक नहीं है क्योंकि आपका पक्ष वादी के द्वारा निराकृत हो चुका है अतः आपकी ही पराजय हो जाती है।
यथोक्त हेतु की सामर्थ्य से अपने पक्ष को सिद्ध करते हुये सद्वादी की सभासदों के समक्ष जय ही युक्त है, न कि निग्रहस्थानरूप पराजय ? इसलिये वह वादी केवल वचन अधिक बोलने की उलाहना के छल से पराजय के स्थानरूप निग्रहस्थान को प्राप्त हुआ है। ऐसा आप सिद्ध नहीं कर सकते हैं, क्योंकि अपने साध्य को सिद्ध करने के अनंतर यदि वादी नृत्य भी करे, तो भी दोष नहीं है, लोक के समान । अर्थात् लोक में कोई भी व्यक्ति अपने कार्य-साध्य को सिद्ध करके पुनः चाहे नाचे, गाये कुछ भी करे उसके साध्य की सिद्धि में कोई दोष नहीं है और स्वयं ही जिसका पक्ष निराकृतखण्डित हो चुका है, ऐसे प्रतिवादी के द्वारा वादी की पराजय होती है। ऐसा भी कहना ठीक नहीं है क्योंकि वादी के द्वारा प्रतिवादी का पक्ष खण्डित कर देने पर ही प्रतिवादी की पराजय मानना उचित है, लोक व्यवहार के समान ।।
1 वादिनः । 2 न श्रेयसी । (ब्या० प्र०) 3 स्वेन (वादिना)। 4 निराकृतः पक्षोस्य (प्रतिवादिनः) असो निराकृतपक्षस्तेन लक्षयितं यूज्यते स्वपक्षसिद्धिनिबन्धनैव, जयाधिकरणप्राप्तिर्न तु वचनाधिक्यनिबन्धनेति भावः। 5 लक्षणीयापि तु न लक्षणीयेति वक्रोक्तिः। 6 धर्मकीतिनोक्तत्वात् । 7 विपक्षाघ्यावृत्तिलक्षणेन । (दि० प्र०) 8 न तु निग्रहस्थानम्। 9 न पुनः केवलम् इति पा० (ब्या० प्र०) 10 स्वपक्षसिद्धिमन्तरेण । (ब्या० प्र०) 11 निग्रहस्थानप्राप्तिः । 12 प्रतिवादिनः । (दि० प्र०) 13 स्वसाध्यकार्य निर्वर्त्य नृत्यं कुर्वन्तः पुंसो दोषाभावात् । (दि० प्र०) 14 सद्वादिनः। 15 पराजयाधिकरणप्राप्तिः । वचनाधिक्योपालम्भछलेन । (दि० प्र०) 16 न केवलं साधर्म्यवैधयेणोभयमसाधनांगमित्येतत् । (ब्या० प्र०) 17 वादिना। 18 प्रतिवादिनः। (ब्या० प्र०) 19 द्वितीयविकल्पं दूषयति।
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