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जयपराजय व्यवस्था ] प्रथम परिच्छेद
[ २७ सर्वथैकान्तस्य दृष्टेन बाधनं 'स्वयमसम्मतस्य', कपिलादीनां परमात्मत्वाभावं च सामर्थ्य
लभ्यमपि ब्रवीति 'ग्रन्थकार इति चेत् 'अनेकान्तकान्तयोरुपलम्भानुपलम्भयोरे कत्वप्रदर्शनार्थ 'तावदुभयमाह मतान्तरप्रतिक्षेपार्थं वा, यदाह * । [ बौद्धः कथयति अन्वयव्यतिरेकयोर्मध्ये एकतरप्रयोगेणैवार्थबोधो जायते अत उभय
प्रयोगो निग्रहस्थानं तस्य विचारः । ] 'धर्मकीर्तिः–साधर्म्यवधर्म्ययोरन्यतरेणार्थगतावुभयप्रतिपादनं "पक्षादिवचनं वा निनहस्थानमिति । न तद्युक्तम् *। कुत इति चेत्, साधनसामर्थ्येन विपक्षव्यावृत्तिलक्षणेन पक्षं
अनेकान्त शासन को प्रत्यक्ष से अबाधित सिद्ध किया है तब अर्थापत्ति से स्वयं ही कपिल आदि के भगवान् एवं उनका एकान्तशासन बाधित ही हो जाता है, उसे पुनरपि बाधित करने की क्या आवश्यकता थी ? तात्पर्य यह है कि "सत्त्वमेवासि" इस कारिका में अर्हन्त के शासन को प्रत्यक्ष से अबाधित सिद्ध किया है एवं "त्वन्मृतामृतबाह्यानां" इत्यादि कारिका से पुनः कपिलादि के एकान्त शासन को बाधित करने की क्या आवश्यकता थी ?
जैन- "अनेकान्त और एकान्त जो कि उपलब्धि और अनुपलब्धिरूप हैं उनमें एकत्व को दिखलाने के लिये ही उन अन्वय-व्यतिरेक को आचार्य कहते हैं अथवा अन्यमतों के खण्डन करने के लिये भी कहते हैं।"
[ बौद्ध कहता है कि अन्वय-व्यतिरेक में से किसी एक के प्रयोग से ही अर्थ का ज्ञान हो जाता है पुनः एक साथ दोनों का प्रयोग करना निग्रहस्थान है-आचार्य इस पर विचार करते हैं । ]
बौद्ध-"हमारे यहाँ धर्मकीति आचार्य ने कहा है कि साधर्म्य-वैधर्म्य में से किसी एक के ही प्रयोग करने से साध्य का बोध हो जाता है, अतः अन्वय-व्यतिरेक इन दोनों का प्रतिपादन करना या पक्षादि वचनों का अर्थात् प्रतिज्ञा, निगमन आदि का प्रयोग करना तो निग्रहस्थान नाम का दोष है।"
जैन—आपका यह कथन ठीक नहीं है। बौद्ध-क्यों ठीक नहीं है ?
1 जनः । (दि० प्र०) 2 मतस्य इति पा० । (दि० प्र०) 3 त्वन्मतेत्यादिना । (दि० प्र०) 4 स्वामिसमन्तभद्राचार्यः (किमर्थमित्यन्वयः)। 5 संबन्धिनोः । (ब्या० प्र०) 6 एकान्तानुपलंभ एव अनेकान्तोपलंभानेकान्तोपलंभ एव एकान्तानुपलंभ इत्येकत्वम् । (ब्या० प्र०) 7 अन्वयव्यतिरेको। 8 स्वेष्टस्य दृष्टेनाबाधनमनिष्टस्य दृष्टेन बाधनमित्युभयम् । (ब्या० प्र०) 9 सौगताचार्यः। 10 अन्वयव्यतिरेकयोः । 11 आदिना प्रतिज्ञानिगमनादिग्रहः । 12 असाधनाङ्गवचनं नाम । (ब्या० प्र०) 13 निग्रहस्थानं पक्षं प्रसाधयतोऽप्रसाधयतो वेति विकल्प्य क्रमेण दूषयति सिद्धान्ती । तत्र प्रथमपक्षमाह तावत् ।
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