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________________ २६ ] अष्टसहस्त्री [ कारिका ७ मानादेः, तेन सामान्यतः समारोपस्य व्यवच्छेदनात्, "दृष्टस्यान्वयव्यतिरेकयोः स्वभावभेदप्रदर्शनार्थत्वाच्च गरिष्ठत्वसिद्धेः * । 'प्रत्यक्षमेव हि स्वविषये सामान्यविशेषात्मकत्त्वान्वयस्य' विधिलक्षणस्य 10सर्वथैकान्तव्यतिरेकस्य च प्रतिषेधलक्षणस्य स्वभावभेदप्रदर्शन प्रयोजनमुपलक्ष्यते साक्षात्, न पुनरनुमानादि तस्य सामान्यतस्तत्प्रदर्शनप्रयोजकत्वात् । [स्वसिद्धांतसमर्थनेनैव परमतनिराकरणं जातं किमर्थं पुन: पृथक् कारिकया निराकरणं क्रियते इति प्रश्ने सति विचार: प्रवर्तते ।] किमर्थं पुनराहतस्येष्टस्य15 16प्रसिद्धनाबाधनं भगवतोर्हतः 1'परमात्मकत्वं चाभिधाय! "प्रत्यक्षप्रमाण अनेकान्त का अस्तित्व विधिरूप अन्वय और एकान्त के नास्तित्वरूप व्यतिरेक का स्वभाव भेद प्रदर्शित करता है इसीलिये वह गरिष्ठ है।" प्रत्यक्ष ही अपने विषय में सामान्य-विशेषात्मक अन्वयरूप विधिलक्षण और सर्वथा एकान्तरूप व्यतिरेक-प्रतिषेधलक्षण में साक्षात् स्वभावभेद को बतलाने में तत्पर है परन्तु अनुमानादिक तो सामान्यरूप से ही अन्वय-व्यतिरेक को बतलाते हैं इसीलिये प्रत्यक्ष ही सामान्य-विशेषात्मक वस्तु ग्रहण करने वाला होने से गरिष्ठ है, वही एकान्ततत्त्व का निषेध करता है। यह ठीक से समर्थन किया गया है कि "स्वेष्टं दृष्टेन बाध्यते'। [ अपने सिद्धान्त के समर्थन से ही परमत का निराकरण हो जाता है पुनः पृथक् कारिका के द्वारा परमत का निराकरण क्यों किया? ऐसा प्रश्न होने पर विचार किया जाता है। ] बौद्ध-आपने अर्हन्त के मत को प्रत्यक्ष प्रमाण से अबाधित सिद्ध करके भगवान् अर्हन्त को ही परमात्मा कहा है पुनः सामर्थ्य-अर्थापत्ति से प्राप्त भी स्वयं को असम्मत-अमान्य सर्वथा एकान्ततत्त्व को प्रत्यक्ष से बाधित करके कपिल आदिकों को परमात्मापने का अभाव सिद्ध किया है ऐसा आप (ग्रन्थकार श्री समन्तभद्र स्वामी) ने क्यों किया? अर्थात् जब आपने अर्हन्त को परमात्मा एवं उनके 1 अनुमानादेः सकाशान्न तादशः। 2 अनुमानादिना। 3 विच्छेदनात् इति पा० । (दि० प्र०, व्या० प्र०) 4 अनेकान्तात्मकस्यास्तित्वविधिरन्वयः । 5 अनुगम। सामान्यविशेषात्मकत्वविधिव्यतिरेकसर्वथकान्तप्रतिषेधः । (दि० प्र०) 6 दृष्टं प्रत्यक्षमन्वयव्यतिरेकयोः स्वभावभेदं दर्शयति ततः प्रत्यक्षस्य गरिष्ठत्वसिद्धिः । 7 स्वभावभेदप्रदर्शनार्थत्वादिति हेतुं भावयति। 8 ता। (ब्या० प्र०) 9 सामान्यविशेषात्मकत्वात्स्वस्येति पाठान्तरम् । 10 ता । (ब्या० प्र०) 11 बसः (बहुव्रीहिः)। 12 तच्छब्देनान्वयव्यतिरेको। 13 अतो दृष्टमेव गरिष्ठं सामान्यविशेषात्मकवस्तुग्राहकमेकान्तं निषेधयतीति समर्थितमेतत् स्वेष्टं दृष्टेन बाध्यत' इत्यत्र । 14 स त्वमेवासि निर्दोष इत्यादिना पूर्व मेवाहच्छासनस्याबाधनमर्हतः परमात्मत्वं च सिद्धम् । पुनस्त्वन्मतामृतबाह्यानामित्यादिना सर्वथैकान्तस्य मतस्य दृष्टंन बाधनं कपिलादेः परमात्मत्वनिराकरणं च किमर्थमिति बौद्धाशङ्का । 15 अनेकान्तस्य। 16 मतस्थ । (दि० प्र०) 17 आप्तत्वमिति पाठान्तरम् । (दि० प्र०) 18 सत्त्वमित्यादिना । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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