________________
एकान्त शासन में दूषण ]
[ २३
एकान्तस्यानुपलब्धिर्वा
'कल्पनामस्त ́ङ्गमयति, चक्षुरादिविकलानामेव तत्संभवात् । ' तामस्तं गमयति तत एव । तथा हि । नास्ति सर्वथैकान्तः, सर्वदानेकान्तोपलब्धेरिति स्वभाव'विरुद्धोपलब्धि : ', नास्ति सर्वथैकान्तोऽनुपलब्धेरिति स्वभावानुपलब्धिर्वा सर्वतश्चक्षुरादेः संवेदनात्सिद्धाऽध्यवसीयते । ननु च 'सर्वथैकान्तस्य क्वचित्कदाचिदुपलब्धौ न सर्वत्र सर्वदा प्रतिषेधः सिध्द्येत् । तस्यानुपलब्धौ नानेकान्तेन विरोधः, सत" एव कथञ्चित्केनचिद्विरोधप्रतीतेः " । प्रतिषेधश्च 14 न स्यात्, तत एव ।' इति कश्चित्तदसत् सर्वथैकान्तस्याध्यारोप्य
13
प्रथम परिच्छेद
समाधान - यह कथन ठीक नहीं है क्योंकि जो मिथ्यारूप से आरोपित किये गये सर्वथा एकान्त तत्त्व हैं उन्हीं का प्रतिषेध किया जाता है । इसीलिये एकान्त स्वभाव से विरुद्ध अनेकांत की उपलब्धि सिद्ध है एवं एकान्त स्वभाव की अनुपलब्धि सिद्ध है अन्यथा यदि आप मिथ्यारूप अरोपित किये गये का प्रतिषेध स्वीकार नहीं करोगे तब तो आप अन्यों के द्वारा स्वीकार किये गये एवं स्वयं के लिये अनिष्ट ऐसे तत्त्व का प्रतिषेध नहीं कर सकोगे और अपने इष्ट तत्त्व का नियम भी नहीं कर सकोगे । अर्थात् अन्य कल्पित तत्त्व आपकी दृष्टि में मिथ्या हैं असत् हैं । इसीलिये आप भी असत् वस्तु का प्रतिषेध नहीं कर सकेंगे और अन्य मतों के निषेध ( खण्डन ) बिना अपने इष्ट मान्य तत्त्व का नियम भी नहीं बना सकेंगे ।
भावार्थ - श्री माणिक्यनन्दिआचार्य ने सूत्रग्रन्थ में कहा है कि " सामान्य विशेषात्मा तदर्थो विषयः” सामान्य-विशेषात्मक पदार्थ ही प्रमाण का विषय है । यहाँ इसी बात को श्री अकलंकदेव एवं विद्यानंदमहोदय सिद्ध कर रहे हैं कि प्रत्यक्षप्रमाण वस्तु के सामान्य धर्ममात्र को या विशेष धर्ममात्र को ही विषय करता हो ऐसा नहीं है किन्तु सामान्य विशेष रूप उभयधर्मों से विशिष्ट वस्तु को ही ग्रहण करता है अतः यह प्रत्यक्षप्रमाण ही एकान्त के अभाव को सिद्ध कर देता है । अथवा अनेकान्त के सद्भाव को सिद्ध कर देता है और जब प्रत्यक्षप्रमाण ही काम कर देवे, तब अनुमान आदि प्रमाणों की आवश्यकता भी क्या रहेगी ? क्योंकि प्रत्यक्ष से अग्नि को देख लेने के पश्चात् धूम हेतु से
1 सामान्याद्येकान्तम् । ( दि० प्र० ) 2 सदाकान्त । ( दि० प्र०) 3 एकान्तवादिनाम् । (ब्या० प्र० ) 4 सा अनर्हतकल्पना । 5 अनार्हतकल्पनाम् । ( दि० प्र०) 6 स्वभावः सर्वथैकान्तस्तस्य विरुद्धः सर्वदानेकान्तस्तस्योपलब्धिर्द्दर्शनम् । ( दि० प्र० ) 7 नामहेतुः । ( दि० प्र० ) 8 प्रत्यक्षादे: । ( दि० प्र० ) 9 सर्वथैकान्तस्योपलब्धावनुपलब्धौ वा प्रतिषेधः साध्यते इत्युक्ते सर्वथैकान्तः कदाचिदुपलब्धोऽनुपलब्धो वा प्रतिषिध्यते इति प्रश्नः फलति । तथा च विकल्प्य परो वक्ति । 10 सर्वथैकान्तस्य क्वचित् कदाचिदनुपलब्धौ सत्यां सर्वत्र सर्वदानेका - तेन सह विरोधो नास्ति । ( दि० प्र० ) 11 सतो विद्यमानस्यैव वस्तुनः केनचित् प्रकारेण केनचिद्वस्तुना सह विरोध: प्रतीयते । ( दि० प्र०) 12 सहानवस्थादिप्रकारेण । ( ब्या० प्र०) 13 अनेन स्वभावविरुद्धोपलब्धिनिरस्ता । ( दि० प्र० ) 14 यथा नास्त्यत्र घटः । ( दि० प्र० ) 15 (सत एव कथंचित्केनचित्प्रतिषेधात् । यतो विधिपूर्वक एव निषेधो भवति । एतेन स्वभावानुपलब्धिनिरस्ता ) ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org