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[ कारिका ७
माणस्य प्रतिषेधसाधनात् तद्विरुद्धोपलब्धिसिद्धेस्तत्स्वभावानुपलब्धिसिद्धेश्च, स्वयमन्यथा ' 'कस्यचिदनिष्टतत्त्वप्रतिषेधायोगादिष्टतत्त्वनियमानुपपत्तेः ।
अष्टसहस्री
[ प्रत्यक्षप्रमाणमेवैकांतकल्पनामपाकरोति ]
अथवा 'प्रत्यक्षमेव सामान्यविशेषात्मकमेकं वस्तु विद'धत्सर्वथैकान्तप्रतीति प्रतिषेधयतीति किं नः प्रमाणान्तरेणानुमानेनानुपलब्धि'लिङ्ग ेन समर्थना "पेक्षेण ? प्रयासमन्तरेणेष्टानिष्टतत्त्वविधिप्रतिषेधसिद्धेः । न हि दृष्टाज्ज्येष्ठ" गरिष्ठमिष्टं 12 13 तदभावे " प्रमाणान्तर प्रवृत्तेः समारोपविच्छेदविशेषाच्च ।
ननु च दृष्टं प्रत्यक्षमिष्टं पुनरनुमानादि प्रमाणम् । तत्र " यथा दृष्टं ज्येष्ठम्, अनुमानादेरग्रेसरत्वात्, तथानुमानाद्यपि प्रत्यक्षात्, तस्यापि " " तदग्रेसरत्वात् क्वचिदनुमानाद्युत्तर
उसका अनुमान कौन करते बैठेगा ? इसी बात को आगे ग्रन्थकार ने स्पष्ट कर दिया है और कह दिया है कि सभी प्रमाणों की अपेक्षा प्रत्यक्ष प्रमाण ज्येष्ठ है गरिष्ठ है ।
[ प्रत्यक्ष प्रमाण ही एकान्त कल्पना को समाप्त कर देता है ]
अथवा प्रत्यक्षज्ञान ही सामान्य विशेषात्मक एक वस्तु को विषय करता हुआ सर्वथा एकान्तरूप प्रतीति का प्रतिषेध करता है, इसलिये हम जैनों को समर्थन की अपेक्षा रखने वाले अनुपलब्धिहेतुक भिन्न अनुमानप्रमाण से क्या प्रयोजन है ? अर्थात् कुछ भी नहीं है क्योंकि प्रत्यक्षप्रमाण से प्रयास के बिना ही इष्ट तत्त्व की विधि एवं अनिष्ट तत्त्व का प्रतिषेध सिद्ध ही है । प्रत्यक्ष प्रमाण से अनुमानादि प्रमाण ज्येष्ठ एवं गरिष्ठ नहीं हैं क्योंकि प्रत्यक्ष के अभाव में अनुमानादि को प्रवृत्ति नहीं पाई जाती है और प्रत्यक्ष ही समारोप का व्यवच्छेदक है यह भी विशेषता इसमें विद्यमान है ।
शंका- जैसे दृष्ट प्रत्यक्ष प्रमाण है उसी प्रकार इष्ट अनुमानादि भी प्रमाण हैं । जहाँ पर जिस प्रकार से प्रत्यक्ष महान् है अनुमानादि में अग्रेसर है, उसी प्रकार से अनुमानादि भी प्रत्यक्ष से प्रधान हैं वे भी प्रत्यक्ष के अग्रेसर हैं, क्योंकि कहीं पर अनुमानादि के उत्तरकाल में प्रत्यक्ष की प्रवृत्ति देखी
1 मिथ्या अध्यारोप्यमाणस्य 2 अध्यारोप्यमाणस्य प्रतिषेधसिद्धिर्न भवेद्यदि । ( दि० प्र० ) 3 आरोप्यमाणस्यापि - प्रतिषेधो न सिद्ध्यति चेत्तदाकस्यचिदनिष्ट तत्त्व प्रतिषेधो न घटते । ( दि० प्र० ) 4 अध्यारोप्यमाणस्य प्रतिषेधसिद्धिर्न भवेद्यदि । 5 अनेकान्तकान्तम् । ( दि० प्र० ) 6 अनेकान्तात्मनो वस्तुनः संवित्तिरेव । 7 विषयीकुर्वत् । 8 सामान्यात्मिकामेव विशेषात्मिकामेव वेत्येवम् । 9 एतेनोपलब्धिलिङ्ग नेत्यप्युक्त बोद्धव्यम् । (दि० प्र०) 10 एवंभूतेन प्रमाणान्तरेण । 11 प्रत्यक्षात् । 12 अनुमानादि । 13 प्रत्यक्षाभावेऽनुमानस्य प्रवृत्तिर्न घटते यतः । 14 प्रमाणान्तरावृत्ते इति पा० (दि० प्र०) यतस्तत: प्रत्यक्षं ज्येष्ठं । प्रत्यक्षे वस्तुनि संशयादिलक्षण: समारोप नास्ति यतस्ततः प्रत्यक्षं गरिष्ठम् । ( दि० प्र०) 15 प्रत्यक्षं विना समारोपविच्छेदविशेषोपि न स्यादित्यर्थः । 16 द्वयोः । (दि० प्र० ) 17 आदिपदेन तर्कप्रत्यभिज्ञानोपमानादि । 18 अनुमानादेः । 19 तस्मात् प्रत्यक्षात् ।
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