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अष्टसहस्री
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[ कारिका ७ संवित्ति'रेकान्तस्यानुपलब्धिर्वा' सर्वतः सिद्धा चक्षुरादिमतामनाहतकल्प'नामस्तंगमयतीति किं नः प्रमाणान्तरेण* । न तावत्सामान्य कान्तस्योपलब्धि विशेषस्याप्युपलब्धेः । नापि विशेषकान्तस्य, सामान्यस्यापीक्षणात् । न सामान्यविशेषकान्तयोरेव परस्परनिरपे13क्षयोः, एकात्म"नोप्युपलक्षणात् । न चैका मन एव सामान्यविशेषकात्मनः, ततो जात्य17न्तरस्य संवित्तः । 18सर्वं हि वस्तु सामान्यं विशेषापेक्षया विशेष: सामान्यापेक्षया वाऽपोद्धार1'कल्पनायां, स्वरूपेण तु सामान्यविशेषात्मकमेकम् । तस्य संवित्तिश्चक्षुरादिमतामनार्हत
प्रश्न-इन दोनों का एक वस्तु में जात्यन्तर का ज्ञान किस प्रकार से होता है ?
उत्तर-सभी वस्तु सामान्य की अपेक्षा से सामान्यरूप हैं अथवा विशेष की अपेक्षा से विशेषरूप हैं यह कथन भेदनय की विवक्षा से समझना चाहिये और स्वरूप से अर्थात् अभेदनय से सभी वस्तु सामान्य-विशेषात्मक ही हैं । ज्ञानी जनों को इस प्रकार का प्रत्यक्षज्ञान है वह अनाहत कल्पना को अस्त कर देता है । जो चक्षु आदि इन्द्रियों से विकल हैं वे ही उस अनाहत (अन्यमतावलम्बियों) की कल्पना को स्वीकार करते हैं विवेकीजन नहीं। अथवा एकान्ततत्त्व की अनुपलब्धि हो उस अनाहत कल्पना को अस्त कर देती है। उसीप्रकार से अविवेकीजन ही उस एकान्ततत्त्व को मान लेते हैं विवेकीजन नहीं
तथाहि सर्वथा एकान्त तत्त्व नहीं है क्योंकि हमेशा अनेकान्त की उपलब्धि हो रही है इस प्रकार वह स्वभावविरुद्धोपलब्धिरूप हेतु है । अर्थात् एकान्त स्वभाव से विरुद्ध अनेकान्त की उपलब्धि हो रही है ऐसा यह हेतु प्रकट करता है। अथवा सर्वथा एकान्त नहीं है क्योंकि उसकी अनुपलिब्ध है। यह स्वभावानुपलब्धि हेतु है अर्थात् एकान्त स्वभाव की अनुपलब्धि है। इस प्रकार से सर्वतः चक्षु आदि इन्द्रियों के प्रत्यक्षज्ञान से सिद्धि का निश्चय होता है।
शंका-सर्वथा एकान्त तत्त्व की कहीं पर किसी काल में उपलब्धि पाई जाती है। सभी जगह और सभी काल में आप उस एकान्त का निषेध नहीं कर सकते हैं। यदि एकान्ततत्त्व की उपलब्धि नहीं है तो फिर अनेकान्त से उसका विरोध नहीं हो सकता है क्योंकि जो वस्तु सत्-विद्यमान है उसी का किसी प्रकार से किसी के द्वारा विरोध सम्भव है इसीलिये असत् का प्रतिषेध नहीं हो सकता है उसी प्रकार से विधिपूर्वक ही प्रतिषेध होता है और जब एकान्त विधिरूप (अस्तित्व रूप) नहीं है तब उसका निषेध भी कैसे हो सकेगा?
1 सम्यक् परिच्छित्तिः। 2 अदर्शनम् । (दि० प्र०) 3 स्पष्टेन्द्रियबोधानाम्। 4 (अनाहतानामार्हतमतविरुद्धानां कल्पनाम्)। 5 जैनानाम् । 6 अनुमानादिना । 7 सत्ताद्वैतवाद्यभ्युपगतस्य । 8 दर्शनग्रहणं वा । (दि० प्र०) 9 बौद्धमतापेक्षया। 10 उपलब्धिरिति संबन्धः कार्यः । (दि० प्र०) 11 उपलब्धिः । (दि० प्र०) 12 यौगमतापेक्षया। 13 पृथग्भूतयोः (जटिलाभ्युपगतयोः)। 14 तादात्म्यरूपस्य । (दि० प्र०) 15 तदात्मकस्य । भटमते भेदासहिष्णरभेदस्तादात्म्यम् । (सामान्यविशेषयोरर्धार्धभागेन कृत्त्वेत्यर्थः)। 16 कथञ्चित्तादात्म्यरूपस्य । (दि० प्र०) 17 नरसिंहवत् । 18 जात्यन्तरस्य संवित्तिः कथमित्युक्ते आह। 19 भेदनयविवक्षायाम् । 20 जैनानाम् । (दि० प्र०)
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