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________________ एकान्त शासन में दूषण ] प्रथम परिच्छेद [ २१ ततश्वित्रज्ञानवन्न केवलं सुखाद्यात्मनश्चैतन्यस्य प्रेक्षणं सिद्धम् । किं तहि ? वर्णसंस्थानाद्यात्मनः स्कन्ध स्यापि । [ सर्व वस्तु अनेकांतात्मकमिति स्पष्टयंति आचार्याः ] ततः सूक्तं-न हि किञ्चिद्रूपान्तरविकलं सदेकान्तरूपमसदेकान्तरूपं वा, नित्य-6 कान्तरूप'मनित्यैकान्तरूपं वा, अद्वैतैकान्तरूपं द्वैताद्यकान्तरूपं वा, संवेदनमन्तस्तत्त्वमन्यबहिस्तत्त्वं, संपश्यामो यथा प्रतिज्ञायते सर्वथैकान्तवादिभिरिति । सामान्य विशेषकात्मनः10 सांख्य इन अद्वैतों को स्वीकार करना नहीं चाहता है अतः आचार्यों का कहना है कि जैसे चैतन्यात्मक जीव द्रव्य अनेक धर्मस्वरूप है वैसे ही पुद्गल, स्कन्ध अनेक गुण पर्यायों की अपेक्षा अनेक धर्मात्मक ही है। [ सभी वस्तुएँ अनेकान्तस्वरूप हैं इस बात को आचार्य स्पष्ट करते हैं ] अतः श्री भट्टाकलंकदेव ने ठीक ही कहा है कि कोई भी वस्तु रूपान्तर से रहित सत् एकान्तरूप या असत् एकान्तरूप, नित्य एकान्तरूप या अनित्य एकान्तरूप, अद्वैतरूप अथवा द्वैत एकान्तरूप, ज्ञानरूप अन्तरङ्ग तत्त्व अथवा केवल बाह्य पदार्थ ही हम लोगों के दृष्टिगोचर नहीं हो रहे हैं जिस प्रकार से कि सर्वथा एकान्तवादी जन स्वीकार करते हैं। "सामान्य विशेषात्मकरूप अनेकान्त वस्तु का ज्ञान प्रसिद्ध है अथवा एकान्तरूप वस्तु की अनुपलब्धि सर्वथा सिद्ध है यह अनेकान्तरूप प्रत्यक्षज्ञान स्पष्ट इन्द्रियज्ञान जिन्हें है ऐसे चक्षुरादिमान् जनों को अनाहत कल्पना (अहंत मत से विरुद्ध कल्पना) को अस्त कर देती है। इसलिये हम स्याद्वादियों को इस विषय में अनुमानादिक भिन्न प्रमाण की क्या आवश्यकता है ? अर्थात् उपर्युक्त अनेकान्त सिद्धि या एकान्त को असिद्धि अनाहत कल्पना को अस्त कर देती है।" सत्ताद्वैतवादी के द्वारा स्वीकृत केवल सामान्य रूप एकान्त की ही उपलब्धि होवे ऐसा नहीं किन्तु विशेष की भी उपलब्धि हो रही है । तथैव बौद्धमत की अपेक्षामात्र रखकर केवल विशेष एकान्त की भी उपलब्धि नहीं है किन्तु सामान्य न्य भी दृष्टिगत हो रहा है और यौगमत के द्वारा स्वीकृत परस्पर में निरपेक्ष पृथक-पृथक रूप से सामान्य-विशेषरूप एकान्त भी प्रतीति में नहीं आते हैं क्योंकि एकात्मक अर्थात् एक जगह ही दोनों पाये जाते हैं। तथा दोनों एकरूप हैं ऐसा भी नहीं कह सकते हैं। सामान्य-विशेषरूप वस्तु है अर्थात् एक वस्तु में सामान्य-विशेष दोनों ही धर्म जात्यन्तररूप से पाये जाते हैं। 1 रूपाद्यात्मकः स्कन्धः सिद्धो यतः । (दि० प्र०) 2 चित्रज्ञानवत्प्रेक्षणं सिद्धमिति संबन्धः कार्यः । (दि० प्र०) 3 भट्टाकलङ्कदेवैः। 4 ब्रह्माद्वैतवादम् । 5 सौगतमतम् । 6 नैयायिकः । (ब्या० प्र०) 7 सौगतः । (ब्या० प्र०) 8 एकान्तत्वेन। 9 सामान्यविशेषाभ्याम्पलक्षितमेकं स्वरूपं यस्य सर्वथोच्यते । (ब्या० प्र०) 10 सामान्यविशेषी एक: आत्मा यस्य तत्सामान्यविशेषकात्मकम् । तस्यानेकान्तरूपस्य वस्तुनः सामान्यविशेषाभ्याम्पलक्षितमेकं स्वरूपं यस्य तत्तथोच्यते इति वा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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