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अष्टसहस्री
[ कारिका ७ [ सांख्यः स्कंधान एव स्वीकरोति न तु परमाणून् तस्य विचारः ] अपर: प्राह—स्कन्ध एव, न वर्णादयस्ततोन्ये सन्ति, तस्यैव चक्षुरादिकरण भेदाद्वर्णादिभेदप्रतिभासनात्, किञ्चिदगुलिपिहितनयनभेदाद्दीपकलिकाभेदप्रतिभासनवदिति, तदप्य'सम्यक, सत्ताद्यद्वैत प्रसङ्गात् । शक्यं हि वक्तुं सतवैका, नद्रव्यादयस्ततोर्थान्तरभूताः सन्ति, "कल्पनाभेदात्तद्भदप्रतिभासनादिति । न13 चैतद्युक्तमिति निवेदयिष्यते ।
परमाणुओं के पिण्ड हैं फिर भी नहीं दिखते हैं। अतः स्कन्ध दृश्य और अदृश्य के भेद से दो प्रकार के हैं ऐसा समझना चाहिये।
[ सांख्य स्कन्ध को ही स्वीकार करता है परमाणु को नहीं मानता है उसका विचार ] सांस्य-"स्कन्ध ही है स्कन्ध को छोड़कर वर्णादिक (अणु आदि) कोई चीज नहीं है" क्योंकि स्कन्ध में ही चक्षु आदि इन्द्रियों के भेद से वर्णादि-अणु आदिरूप भेद प्रतिभासित होते हैं जैसे किञ्चित् अङगुली से ढके हुये नेत्र से दीपकलिका में भेद प्रतिभासित होता है।
जैन-यह कथन भी असमीचीन है क्योंकि एक स्कन्ध ही है वर्णादि नहीं हैं ऐसा मानने पर तो सत्ताद्वैत आदि वादों का प्रसङ्ग आ जावेगा। हम ऐसा कह सकते हैं कि सत्ता ही एक है उस सत्ता से भिन्न द्रव्यादि, गुणादि कोई चीज नहीं हैं। कल्पना के भेद से ही भेद का प्रतिभास होता है। इस प्रकार से सत्ताद्वैतवादियों का ही मत सिद्ध हो जावे, परन्तु यह ठीक तो नहीं है। इसका वर्णन हम आगे करेंगे अतः चित्रज्ञान के समान सुखादिस्वरूप चैतन्य की ही केवल सिद्धि नहीं है परन्तु वर्ण संस्थान आदिस्वरूप स्कन्ध की भी सिद्धि हो रही है।
भावार्थ-बौद्ध और सांख्य प्रायः एक दूसरे से विपरीत कहने वाले हैं। बौद्ध ने कहा था कि अणु-अण ही दिख रहे हैं स्कन्ध कोई चीज नहीं है, तो सांख्य कहता है कि स्कन्ध ही दिख रहे हैं अणु आदि कोई चीज ही नहीं है। जो अणुआदिरूप से किसी वस्तु में भेद दिखते हैं वह केवल प्रतिभासमात्र हैं क्योंकि किञ्चित् अगुली से ढके हुये नेत्र से दीपक की लौ में भेद दिख जाता है इत्यादि । यह सांख्य सभी वस्तुओं को नित्य मानता है अतः सत्कार्यवादी है। जैनाचार्यों का कहना है कि भाई ! यदि अणु, वर्ण आदि के भेद को कल्पनामात्र कहोगे तब तो सत्ताद्वैत, ब्रह्माद्वैत, ज्ञानाद्वैत, शब्दाद्वैत आदि अद्वैत सिद्धांतों को भी स्वीकार कर लो क्योंकि ये लोग भी तो भेद को काल्पनिक कहते हैं।
1 साङ्खयः। 2 स्कन्धवादी कश्चित् । (दि० प्र०) 3 रूपादयः । (ब्या० प्र०) 4 पञ्चेन्द्रिय । (दि० प्र०) 5 साधन । (दि० प्र०) 6 मनाक् । 7 जैनः= गुणादि । (दि० प्र०) 8 एकः स्कन्ध एव वर्तते न तु वर्णादय इत्युक्ते। 9 सत्तातो जीवादि द्रव्यादयो भिन्ना न सन्ति । (दि० प्र०) 10 गुणादयश्च । 11 एषा सत्ता इमे द्रव्यादय इति । 12 द्रव्यादिभेद । (दि० प्र०) 13 तहि सत्ताद्वैतमेवास्त्वित्युक्ते आह । 14 द्वितीय परिच्छेदे। अद्वैतैकान्तपक्षेपीत्त्यादिना । (दि० प्र०)
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