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________________ एकान्त शासन में दूषण ] प्रथम परिच्छेद [ १६ क्रयी', विकल्प बुद्धावेव तस्य प्रतिभासनाद्विचार्यमाणस्य सर्वथानुपपन्नत्वात्' इति मतं तदप्य संगतमेव, प्रत्यासन्नासंसृष्टपरमाणूनां 'तथात्वेन कस्यचित्कदाचिनिश्चयासत्त्वात् प्रत्यक्षतानुपपत्तेः, स्कन्धस्यैव स्फुटमध्यक्षेवभासनात् तथा निश्चयनाच्च प्रत्यक्षत्वघटनात् । न' च परमाणुवत्सर्वे स्कन्धाः सम परिमाणा एव, येन केषांचित्प्रत्यक्षत्वे सर्वेषां प्रत्यक्षस्वभावता स्यात्, अणुमहत्त्वा"दिपरिमाणभेदेन तेषाम दृश्येतरस्व भावभेदाभेदसिद्धेः । ना4 चायम मूल्यदानक्रयी, प्रत्यक्षे स्व समर्पणेन प्रत्यक्षतास्वीकरणात्, सर्वथा विचार्यमाणस्यापि घटनात् । विचारयिष्यते चैतत्पुरस्तात् । प्रत्यक्षस्वभाव वाले हो जावें अर्थात् नहीं हो सकते हैं। उनमें अणु महत्त्वादिरूप परिमाण के भेद से अदृश्य एवं दृश्य रूप (चक्षु इन्द्रिय के विषय) स्वभाव के भेद से भेद सिद्ध ही है इसलिये ये अमूल्यदानक्रयी भी नहीं हैं। प्रत्यक्षज्ञान में स्वात्मसमर्पण करके ही प्रत्यक्षपने को स्वीकार करते हैं सर्वथा विचार करने पर सुघटित प्रतीत हो रहे हैं। द्वितीय परिच्छेद में “संतान: समुदायश्च".....""इस कारिका में इसका विशेष विचार करेंगे। भावार्थ-बौद्धों का कहना है कि निर्विकल्पज्ञान में प्रत्येक वस्तु के प्रत्येक अणु-अणु ही झलकते हैं अणुओं के मिलाने से बना हुआ संघात रूप स्कन्ध नहीं झलकता है अतः स्कन्ध नाम की चीज सर्वथा काल्पनिक है वास्तव में अणु-अणु रूप ही सभी पदार्थ हैं उसके यहाँ निर्विकल्प ज्ञान में पुस्तक के प्रत्येक पत्रों के प्रत्येक अणु-अणु, अलग-अलग ही दिख रहे हैं यह बड़े आश्चर्य की बात है । वास्तव में देखा जावे तो न तो निर्विकल्प ज्ञान ही सिद्ध होता है और न उसमें परमाणु ही झलक सकते हैं। हमारे और आपके सभी के साकारज्ञान में परमाणुओं से निर्मित स्कन्धरूप स्थूल आकार ही दीखते हैं । अतः स्कन्ध का लोप करना कथमपि शक्य नहीं है। अन्यथा पुस्तकों के पेज-पेज पर लिखे हुये प्रकरणों को हम पढ़ भी नहीं सकेंगे। जब पन्नों में परमाणुओं का संघात होकर एकता होगी तभी वे पन्ने-पन्ने बनकर पुस्तक रूप ले सकेंगे। सभी स्कन्ध समपरिणाम वाले भी नहीं हैं क्योंकि "संख्येयासंख्येयाश्च पुद्गलानां" इस सूत्र के अनुसार कोई स्कन्ध संख्यातप्रदेशी हैं कोई असंख्यात एवं कोई अनंतप्रदेशी हैं। इनमें भी किन्हीं स्कन्धों में सघन विशेष है अतः वे नहीं दिखते हैं किन्हीं में चाक्षुषत्व है अतः वे दिखते हैं। कर्म परमाणु निगोदिया जीवों के शरीर कार्मण, तैजस शरीर अनन्तानन्त 1 अवयविन: प्रत्यक्षत्वे स्वात्मसमर्पणं मूल्यदानं, तददत्त्वा प्रत्यक्षत्वग्राही। 2 अन्यापोहलक्षणायाम् । 3 स्कन्धस्य । 4 अवयवी अवयवेष सर्वथैकेन स्वभावेन कि सर्वात्मना वर्तते इत्यादिप्रकारेण । 5 सौगतस्य । 6 जैनाः प्राहुः। 7 भिन्नत्वेन । 8 पुंसः। 9 तथा सति सर्वेषां स्कन्धानां प्रत्यक्षता स्यादियुत्क्ते आह । 10 तुल्यस्वभावाः । (दि० प्र०) 11 आदिशब्देन पिशाचेतरशरीरादिवतिसूक्ष्मस्थूलादिकं ग्राह्यम् । 12 स्कन्धानाम् । (दि० प्र०) 13 दृश्य । (दि० प्र०) 14 अस्तु नाम स्कन्धानां विषमपरिमाणत्वम् । तेषां विकल्पेवभासनादवस्तुत्वं स्यादित्यत आह। 15 स्कन्धः। 16 विषयभाव एव समर्पणम् । (दि० प्र०) 17 बौद्धमतस्वीकारेण । (ब्या प्र०) 18 विषयभाव एव स्वसमर्पणमिति । 19 द्वितीयपरिच्छेदे सन्तान: समूदायश्चेति कारिकायाम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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