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________________ १८] अष्टसहस्री [ कारिका ७ 'प्रत्यासन्नासं' सृष्टा रूपादिपरमाणवः प्रत्यक्षाः तेषां ' 'स्व'कारणसामग्री' वशात्प्रत्यक्ष संविज्जननसमर्थानामेवोत्पत्तेः, स्कन्धस्यापि तत एव परेषां प्रत्यक्षतोपपत्तेरन्यथा सर्वस्कन्धानां प्रत्यक्षत्वप्रसङ्गात्, स्कन्धत्वाविशेषात् । तदविशेषेपि केषाञ्चित्प्रत्यक्षत्वे परेषामप्रत्यक्ष''स्वभावत्वे पिशाचशरीरादीनां तथा ' ' स्व ' ' कारणादुत्पत्तेः परमाणूनामपि केषाञ्चित्प्रत्यक्षत्वमन्येषा'मप्रत्यक्षत्वं तत एवास्तु किमवयवि परिकल्पनया ? " तस्या 20 मूल्य 21 दानक्रयित्वात् । स 22 हि 23 प्रत्यक्षे स्वात्मानं न समर्पयति प्रत्यक्षतां व स्वीकर्तुमिच्छतीत्यमूल्यदान , बौद्ध - दोनों में स्कन्धपना समान होते हुए भी कोई तो प्रत्यक्षत्व स्वभाव वाले हैं एवं कोई अप्रत्यक्षत्व स्वभाव वाले हैं । अतः पिशाच शरीर आदि प्रत्यक्षत्व - अप्रत्यक्षत्व स्वभाव वाले होने से अपने-अपने कारणरूप परमाणु से उत्पन्न होते हैं इसलिए प्रत्यक्षत्व अप्रत्यक्षत्व स्वभाव से ही किन्हीं पुँजीभूत परमाणु के प्रत्यक्षत्व एवं किन्हीं अपुंजीभूत परमाणु के अप्रत्यक्षत्व हो जावे, पुनः अवयवी की कल्पना से क्या प्रयोजन है ? क्योंकि वह अवयवी अमूल्यदानक्रयी हो जाता है अर्थात् बिना मूल्य केही वस्तु को खरीदने योग्य हो जाता है । वह अवयवी निर्विकल्प प्रत्यक्ष में अपनी आत्मा को समर्पण नहीं करता है और प्रत्यक्ष को स्वीकार करने की इच्छा करता है इसलिये अमूल्यदानक्रयी है । अर्थात् अवयवी का प्रत्यक्षज्ञान में स्वात्मसमर्पण करना मूल्य दान है और वह स्वात्मसमर्पण न करके ही प्रत्यक्ष का विषय बनना चाहता है अतः अमूल्यदानक्रयी है क्योंकि वह अवयवी स्कन्ध तो अन्यापोह लक्षण विकल्पबुद्धि में ही प्रतिभासित होता है यदि उसका पूर्णतया विचार करें तो वह वस्तुभूत सिद्ध नहीं होता है अर्थात् यदि हम प्रश्न करें कि अवयवों में अवयवी सर्वथा एकस्वभाव से रहता है या सर्व स्वभाव से ? इत्यादि विकल्प के करने पर उसकी व्यवस्था ही नहीं बनेगी । जैन - आपका यह कथन असङ्गत ही है । प्रत्यासन्न और परस्पर में असम्बद्ध परमाणु भिन्न-भिन्न रूप से किसी भी व्यक्ति को किसी काल में भी नहीं दीखते हैं इसलिये वे प्रत्यक्षज्ञान के विषय नहीं हैं प्रत्युत स्कन्ध ही स्पष्टरूप से प्रत्यक्षज्ञान में अवभासित होता है । वैसा ही निश्चय होने स्कन्ध ही प्रत्यक्षज्ञान का विषय है यह बात सुघटित सिद्ध होती है और परमाणु के समान सभी स्कन्ध समपरिणाम वाले भी नहीं हैं जिससे कि किन्हीं - किन्हीं स्कन्धों के प्रत्यक्ष होने पर सभी स्कन्ध 1 असम्बद्धाः । 2 तेषां रूपादिपरमाणुनां रूपचक्षुः प्रकाशादिसामग्री वशतैः । ( दि० प्र०) 3 अवयविनमपरिकल्पयतां सोगतानां प्रत्यासन्ना इव अप्रत्यासन्ना अपि परमाणवः प्रत्यक्षाः स्युरित्याशंकायामाह तेषामिति । ( दि० प्र० ) 4 तर्हि परमाणुत्वाविशेषात्सर्वे (अप्रत्यासन्नाः) परमाणवः प्रत्यक्षाः स्युरित्याशङ्कायामाह । 5 रूपचक्षुः प्रकाशादिसामग्रीवशतः । 6 स्वकारणसामग्रीवशादेव । 7 नैयायिकानां स्याद्वादिनां च । 8 अतो वर्णादीनां नानुपलम्भः । 9 स्वकारणवशादेव स्कन्धस्य प्रत्यक्षसंविज्जननसमर्थस्वभावत्वाभावे सति । 10 पिशाचादिशरीरादीनाम् । 11 ( पराभिमते सति । बौद्ध आह ) । 12 प्रत्यक्षसं विज्जननसमर्थस्वभावप्रकारेण । ( दि० प्र०) 13 प्रत्यक्षत्वाप्रत्यक्षत्वस्वभावेन । 14 स्वकारणं परमाणुः । 15 पुञ्जीभूतानाम् । 16 अपुञ्जीभूतानाम् । 17 प्रत्यक्षाप्रत्यक्षस्वभावत्वात् । 18 स्कन्धः । ( दि० प्र०) 19 अवयविरूपस्य स्कन्धस्य । ( दि० प्र०) 20 अवयविनः । 21 मूल्यार्पणमन्तरेण ग्राह्यत्वात् । 22 स्कन्धः । ( दि० प्र०) 23 निर्विकल्प | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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