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________________ एकान्त शासन में दूषण ] प्रथम परिच्छेद तमनश्चित्रज्ञानस्येष्टत्वात् । 'तत्सिद्धं वित्रज्ञानवरेत्कथञ्चिदसङ्कीर्णविशेषै 'कात्मनः सुखादिचैतन्यस्य प्रेक्षणं तथा वर्णसंस्थानाद्यात्मनः स्कन्धस्य च । [ बौद्धः प्रत्येक परमाणून पृथक् पृथक् मन्यते स्कंधावस्थां न मन्यते तस्य विचार: ] न हि वर्णादीनामेव प्रेक्षणं प्रत्यक्षबुद्धौ, न पुन: 1 स्कन्धस्यकस्येति कल्पनमुप"पन्नं, 12सर्वाग्रहण प्रसङ्गात्, स्कन्धव्यतिरेकेण वर्णादीनामनुपलम्भात् स्कन्धस्येवा "सत्त्वात् । अथ'5 अनेकान्तात्मक चर-अचर वस्तुयें एकांततत्त्व को बाधित करने वाली हैं। योग सम्प्रदाय के ही नैयायिक और वैशेषिक भेद माने गये हैं। [ बौद्ध अणु-अणु को पृथक्-पृथक् मानता है, स्कंध नहीं मानता है उसका विचार ] ___ बौद्ध-वर्णादिक ही प्रत्यक्ष बुद्धि में प्रतिभासित होते हैं न कि एक स्कन्ध्र । अर्थात् परमाणुओं की स्थूल परिणति प्रचय रूप स्कन्ध, निर्विकल्प ज्ञान में प्रतिभासिल नहीं होता है मात्र परमाणु ही झलकते हैं। जैन-आपकी यह कल्पना ठीक नहीं है अन्यथा सभी वर्ण संस्थानादि आकारों का ग्रहण ही नहीं हो सकेगा क्योंकि स्कन्धों के बिना वर्णों की उपलब्धि नहीं पायी जाती है। पुनः स्कन्धों के अभाव में उन वर्णों का भी अभाव हो जावेगा। बौद्ध-प्रत्यासन्न एवं परस्पर में असम्बद्ध रूपादि परमाणु प्रत्यक्ष होते हैं क्योंकि स्वकारण सामग्रीरूप चक्षु, प्रकाश आदि सामग्री के निमित्त से उनमें प्रत्यक्षज्ञान को उत्पन्न करने की सामर्थ्य पाई जाती है। जैन—इसी प्रकार स्वकारण सामग्री के निमित्त से स्कन्ध भी प्रत्यक्षज्ञान के विषय हैं ऐसा हम लोग एवं नैयायिक स्वीकार करते हैं अन्यथा स्वकारण निमित्त से ही स्कन्ध में प्रत्यक्षज्ञान को उत्पन्न करने की सामर्थ्य का अभाव होने पर सभी स्कन्ध (पिशाचादि) को भी प्रत्यक्षत्व का प्रसंग आ जावेगा क्योंकि दोनों में स्कन्धत्व समान है। 1 तस्मात्कारणात् । (दि० प्र०) 2 यथा चित्रज्ञानस्य कथञ्चिदेकानेकात्मकस्य प्रेक्षणं सिद्धम् । 3 कथञ्चिदेकानेकात्मकस्य सूखदुखहर्षविषादादि चेतनस्य तत् प्रेक्षणं साक्षात्करणं सर्वथकानेकानिराकरणनासिद्धम् । यथा चित्रज्ञानस्यैकानेकात्मकत्वेन साक्षात्करणं सिद्धम् । (दि० प्र०) 4 कथञ्चिदेकानेकात्मकत्वेन सुखदुःखहर्षविषादादिरूपस्य चैतन्यस्य । 5 इदं सुखमयमात्मा इति । (दि० प्र०) 6 असंकीर्णविशेषकात्मनस्तत्प्रेक्षणं सिद्धमिति संबन्धः कार्यः । (दि० प्र०) 7 असङ्कीर्णविशेषकात्मनः प्रेक्षणमित्यनेनान्वयः । 8 (स्कन्धस्य कथञ्चिदेकानेकात्मकत्वं साधयति)। 9 केवलम् । 10 परमाणनां स्थूलपरिणतिः स्कन्धः । सुगतमते तु परमाणुप्रचयरूपः स्कन्धः। 11 वर्णादीनामप्यग्रहणप्रसंगादिति भावः । (दि० प्र०) 12 सर्वेषां वर्णसंस्थानादीनाम् । 13 इति कल्पनमुपपन्नं योग्यं भवति चेत्तदा सर्वेषां वर्णानां स्कन्धस्य चानङ्गीकारो भवति स्कन्धरहितेन वर्णादीनाम् दर्शनात् । तथा सति स्कन्धस्यासत्वं घटते। (दि० प्र०) 14 वर्णादिव्यतिरेकेण स्कन्धस्यानुपलम्भो यथा। 15 असंबद्धाः। (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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