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[ कारिका ७
सामान्यतश्चे'तनत्वसाधनात्, तदभावे चेतनाविशेषप्रमितिसमवायायोगात्पटादिवत् कथञ्चितादात्म्यस्यैव समवायस्य साधनात् । ' चेतनादप्यात्मन: कथमभिन्नाः 'सुखादयो, भिन्नप्रतिभासविरोधादिति चेन्न ', ' तत्र सर्वथा भिन्नप्रतिभासस्यासिद्धत्वात् कथञ्चिद्भिन्नप्रतिभासस्य कथञ्चिदभेदाविरोधात् चित्रज्ञानवदेव 'सुखाद्यात्मनः पुरुषस्यैकस्य घटनात्, 'सर्वेषामेकानेका
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अष्टसहस्त्री
शंका-अच्छा ! आप आत्मा को चेतन मान लीजिये फिर भी उस चेतनरूप आत्मा से सुखादिक अभिन्न कैसे हो सकते हैं ? अन्यथा भिन्न-भिन्न प्रतिभास का विरोध हो जावेगा ।
समाधान - उन सुखादिकों का सर्वथा भिन्न-भिन्न प्रतिभास असिद्ध है और कथञ्चित् भिन्न प्रतिभास में कथञ्चित् अभिम्नत्व का विरोध नहीं है। चित्रज्ञान के समान ही सुखादिस्वरूप पुरुष- आत्मा एक घटित होता है । सभी ने ही चित्रज्ञान को एकानेकात्मक माना है । अतः बात सिद्ध हो गई कि चित्रज्ञान के समान कथञ्चित् असङ्कीर्णविशेष एकात्मरूप सुखादि चैतन्य देखने में आते हैं और उसी प्रकार से वर्ण संस्थानादिस्वरूप पुद्गल स्कन्ध भी देखने में आते हैं अर्थात् कथञ्चित् एकानेकात्मकरूप से सुख, दुःख, हर्ष, विषाद आदिरूप चैतन्य का अनुभव होता है अतः द्रव्याथिकनय की अपेक्षा से सुखादि कथञ्चित् आत्मा से अभिन्न हैं एवं पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा से कथञ्चित् भिन्न हैं यह बात सिद्ध हुई ।
भावार्थ - योग आत्मा को चेतन न मान करके चेतनागुण के समवाय ये उसे चेतन मानता है क्योंकि उसके यहाँ द्रव्य, गुण, कर्म आदि सब पदार्थ सर्वथा पृथक्-पृथक् हैं और तो क्या ? उसके यहाँ प्रत्येक वस्तु सत्रूप नहीं है सत्ता के समवाय से सद्रूप है, किन्तु जैनाचार्यों का ऐसा कहना है कि "कथञ्चित् तादात्म्य" को छोड़कर समवाय नाम की कोई चीज सिद्ध नहीं होती है। इस समवाय का खण्डन स्वयं श्री विद्यानन्द महोदय ने 'आप्तपरीक्षा' ग्रन्थ में विशेष रूप से किया है । यदि कोई कहे कि चेतनरूप आत्मा से सुखादि पर्यायें भिन्न हैं क्योंकि उनका भिन्न-भिन्न अनुभव आ रहा है । इस पर भी आचार्य कहते हैं कि सर्वथा आत्मा से भिन्न सुख का अनुभव आता ही नहीं है अत. ये सुखादि पर्यायें कथञ्चित् चैतन्य से भिन्न हैं क्योंकि पर्यायें हैं कथञ्चित् चैतन्य से अभिन्न हैं क्योंकि आत्मा से पृथक् अन्यत्र नहीं पाई जाती हैं । यहाँ यह बात सिद्ध हो गई है कि चित्रज्ञान के समान जीवद्रव्य सुखज्ञानादि पर्यायों से अनेकात्मक है और द्रव्य दृष्टि से एकरूप है अतः जीवद्रव्य एकानेकात्मक सिद्ध है । वैसे ही पुद्गल स्कन्ध भी रूप, रस, गंध, वर्ण, आकार आदि की अपेक्षा अनेकरूप एवं द्रव्य की अपेक्षा एकरूप होने से एकानेकात्मक सिद्ध हैं । यहाँ पूर्व से सम्बन्ध जोड़ लेना चाहिये कि
1 आत्मनः । 2 परेष्ट आत्मा चेतनाविशेषप्रमितिसमवायभाग् न भवति, सामान्यतः स्वतोऽचेनतत्वात् पटादिवत् । 3 परो जैनाभिमतं चेतनमप्यात्मानं स्वीकृत्य दोषमाह । 4 भवत इष्टानुसारेण । ( दि० प्र०) 5 अन्यथा ।
( ब्या० प्र० ) 6 जैना: प्राहुः । 7 सुखादौ । 8 सुखादिस्वरूपस्य | 9 वादिनाम् (ब्या० प्र०) वादिप्रति
वादिनां । ( दि० प्र०)
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