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एकान्त शासन में दूषण ]
प्रथम परिच्छेद विरोधात् । एतेन ज्ञानादर्थान्तरभूतत्वात्सुखादीनामचेतनत्वमेवेति 'वदन्तोऽपाकृताः प्रत्येतव्याः, चेतनादात्मनोनर्थान्तरत्वेन कथञ्चिच्चेतनत्वसिद्धेः ।
[ योग: आत्मानं चेतनं मन्यते तस्य निराकरणम् । आत्मनश्चेतनत्वमसिद्धमिति चेन्न, तस्य' प्रत्यक्ष प्रसिद्धत्वात् । तथात्मा चेतनः, प्रमातृत्वाद्, यस्त्वचेतनः स न प्रमाता, यथा घटादिः, प्रमाता चात्मा, तस्माच्चेतन इत्यनुमानाच्च" तत्सिद्धम् । 'अमितिस्वभावचेतनासमवायादात्मनि चेतनत्वसाधने सिद्धसाध्यतेति चेन्न, स्वयं
कारण सातावेदनीय के उदय आदि हैं एवं ज्ञानादि के कारण ज्ञानावरण के क्षयोपशम, क्षय आदि हैं अतः ये एक हेतूज नहीं हैं। वास्तव में आत्मा में अनन्त गुण हैं किन्तु ज्ञानगण, दर्शनगण के अतिरिक्त शेष सब गण अचेतन ही हैं। एक ज्ञान ही सभी को जानने वाला है, चेतन है फिर भी हम स्याद्वादियों के यहाँ सुखादि पर्यायों को आत्मा में ही होने से कथञ्चित् चेतनरूप माना है तथा उत्पत्ति के कारण भेद एवं आल्हाद और जानने रूप कार्य भेद से कथञ्चित् भिन्न भी माना है। स्याद्वाद सिद्धान्त में दोनों बातें घटित हो जाती हैं।
[ योग आत्मा को अचेतन कह रहा है उसका निराकरण ] नैयायिक-हमारे यहां आत्मा का अचेतनत्व सिद्ध है।
जैन नहीं। वह आत्मा स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से चेतन रूप सिद्ध है । "आत्मा चेतन है क्योंकि वह प्रमाता है जो अचेतन है वह प्रमाता भी नहीं है जैसे घटादि, और आत्मा प्रमाता है इसीलिये वह चेतन है।" इस अनुमान से भी आत्मा को चेतनपना सिद्ध है।
नैयायिक--प्रमिति स्वभाव चेतना के समवाय से आत्मा को चेतन सिद्ध करने में सिद्धसाध्यता
जैन-नहीं। हमने स्वयं स्वभाव से ही आत्मा में सामान्यतया चेतनत्व सिद्ध किया है आत्मा में स्वयं चेतनत्व गुण का अभाव है पटादि के समान ।" अर्थात् आपके द्वारा स्वीकृत आत्मा "चेतना विशेष प्रमितिरूप समवाय से युक्त नहीं है क्योंकि वह सामान्य रूप से स्वतः अचेतनरूप हैं पट के समान ।" एवं हम जैनों ने तो कथंचित् तादात्म्य को ही 'समवाय' सिद्ध किया है।
1 नैयायिकाः। 2 सुखादयः पक्षोऽचेतना भवन्तीति साध्यो धर्मः । ज्ञानाभिन्नभूतत्वात् । ये ज्ञानाभिन्न
T: यथा घटादय इति ब्रवन्तो योगा विध्वस्ता ज्ञातव्या इति । (दि० प्र०) 3 चेतनत्वस्य । (दि० प्र०) 4 प्रत्यक्षेणात्र स्वसंवेदनं गृह्यते। 5 अनुमानसिद्धं दर्शयति । (ब्या० प्र०) 6 आत्मनश्चेतनत्वम् । (दि० प्र०) 7 आह योगादिः । ज्ञानफलस्वरूपचेतनासंबन्धादात्मनि स्याद्वादिनां चेतनत्वसाधनेऽस्माकमिष्टं सिद्धमिति चेन्न । कस्मात् स्याद्वादिभिः सामान्येन चेतनत्वं साध्यते यतः । तस्य सामान्यतश्चेतनत्वाभावे सति चेतनाविशेष फलज्ञानसमवायाघटनात्। यथा पटादौ सामान्यचेतनाभावे चेतनाविशेषप्रमिति समवायो न घटते । (दि० प्र०) 8 ज्ञानम् । (दि० प्र०) 9 नैयायिक प्रतिसिद्धसाध्यता । (दि० प्र०) 10 स्वरूपेण ।
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