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अष्टसहस्री
[ कारिका ७
"तद' तद्रूपिणो भावास्तदतद्रूपहेतुजाः । तद्रूपादि किमज्ञानं विज्ञानाभिन्नहेतुजम् ।" इति । यदि पुनरिन्द्रियानिन्द्रियहेतुजत्वं विज्ञानाभिन्न हेतु जत्वमित्यभिधीयते तदपि न सुखादीनां ज्ञानत्वं साधयति, 'द्रव्येन्द्रिया 'निन्द्रियैर्व्यभिचारात् । इति नैकान्ततो ज्ञानात्मका सुखादयो द्रव्यात एव तेषां चेतनत्वोपपत्तेः, चेतनद्रव्यादात्मनोऽनर्थान्तरभूतानामचेतनत्व
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श्लोकार्थ - 'तद्रूप, अतद्रूप जितने भी पदार्थ हैं वे सभी तद्रूप, अतद्रूप हेतु से उत्पन्न होते हैं ।' यदि आप सौगत ऐसा कहते हैं तब तो विज्ञानरूप एक अभिन्न हेतु से उत्पन्न होने वाले वे रूपादिक क्या अज्ञानरूप हो सकते हैं ? अर्थात् रूपादिक भी अज्ञानरूप नहीं हैं, किन्तु ज्ञानात्मक ही हैं ।
शंका- इन्द्रिय और मन रूप हेतु से उत्पन्न होना यह विज्ञान से अभिन्न हेतुजपना है अर्थात् ज्ञान भी इन्द्रिय और मनरूप हेतु से उत्पन्न होता है सुखादि भी इन्द्रिय मनरूप हेतु से उत्पन्न होते हैं अतः दोनों ही एक हेतु से उत्पन्न होने से अभिन्न हेतुज हैं ।
समाधान- इस कथन से भी आप सुखादिक को ज्ञान रूप सिद्ध नहीं कर सकते क्योंकि द्रव्य इन्द्रिय और द्रव्यमन से व्यभिचार आता है अर्थात् पूर्व के इन्द्रिय और मन उत्तर द्रव्येंद्रिय और मन के प्रति कारण हैं, तब उत्तर द्रव्येन्द्रिय और मन ये दोनों ज्ञान के साथ अभिन्न हेतुज हैं । इसलिये एकांत से सुखादि ज्ञानात्मक नहीं हैं । हां ! द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से ही वे सुखादिक, चेतन रूप हैं क्योंकि चेतनद्रव्यरूप आत्मा से अभिन्नरूप उन सुखादिकों में अचेतनत्व का विरोध है । इसी कथन से "ज्ञान से भिन्नरूप होने से सुखादिक सर्वथा अचेतन ही हैं" ऐसा कहने वाले नैयायिकों का खण्डन हुआ समझना चाहिये क्योंकि चेतनरूप आत्मा से अभिन्न होने से ये सुखादि कथञ्चित् चेतनरूप सिद्ध हैं ।
भावार्थ–सांख्य सुखादि पर्यायों को एवं ज्ञान दर्शन आदि को प्रधान के परिणाम मानता है अतः इन्हें अचेतन मानता है । उसका कहना है कि ये सुख और ज्ञानादि, चेतन आत्मा के संसर्ग से चैतन्यरूप मालूम पड़ रहे हैं, मूल में अचेतन हैं । किन्तु जैनाचार्यों ने इनका खण्डन कर दिया है क्योंकि सुखादि एवं ज्ञानादि आत्मा को छोड़कर अन्यत्र नहीं पाये जाते हैं तथा इन सुख, ज्ञान आदि के बिना आत्मा का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है। बौद्ध का कहना है कि सुखादि पर्यायें ज्ञानात्मक ही हैं क्योंकि एक कारण से उत्पन्न हुई हैं । इस पर जैनाचार्य का स्पष्ट कथन है कि भाई ! सुखादि के
1 रूपादिनः कथं विज्ञानरूपत्वमिति चेत् सुखादिनः कथं विज्ञानरूपत्वमित्यत्रापि समानरूपत्वात् । ( दि० प्र०) 2 इति चेत् (सौगतेनोच्यते चेत् ) । 3 तत् तस्मात्, रूपादि नैवाज्ञानं किन्तु ज्ञानमेव स्यादित्यर्थः । 4 इदानीं सहकारित्वविवक्षामन्तरेणाभिधीयमानं ज्ञातव्यम् । ( दि० प्र० ) 5 त्वया चित्राद्वैतवादिना । ( दि० प्र०) 6 अचेतन रूपाणि द्रव्येन्द्रियाणि द्रव्यमनश्च तैः कृत्वा विज्ञानाभिन्नहेतुजत्वस्य हेतोर्व्यभिचारः । ( दि० प्र०) 7 तेषां द्रव्येन्द्रियाणां प्राक्तनेन्द्रियोत्पन्नत्वेन विज्ञानाभिन्नहेतुजत्वे सत्यपि विज्ञानरूपत्वाभावात् । ( दि० प्र०) 8 पूर्वेन्द्रियानिन्द्रियमुत्तरद्रव्येन्द्रियानिन्द्रियं प्रति कारणम् । तदा उत्तरद्रव्येन्द्रियानिन्द्रिययोर्ज्ञानेन सहाभिन्नहेतुजत्वात् । 9 द्रव्याथिकनयेन । 10 सुखादीनाम् ।
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