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एकान्त शासन में दूषण ]
प्रथम परिच्छेद "तदातपिणो भावास्तदतद्रूपहेतुजाः। तत्सुखादि किमज्ञानं विज्ञानाभिन्नहेतुजम् ।" इति तदपास्तं, सुखादीनां विज्ञानरूपत्वासिद्धेः । "सुख माह्लादनाकारं विज्ञानं मेयबोधनम् । शक्तिः क्रिया नुमेया स्याद्यूनः कान्तासमागमे ।'
इति वचनादत द्रूपाः सुखादय इति । अतद्रूपाणां' तद्रूपोपादानत्वे सर्वस्य सर्वोपादानत्वप्रसक्तिः । न च सुखादयो' विज्ञानाभिन्नोपादानाः स्युः । विज्ञाना' भिन्नसहकारित्वं' तु यथा सुखादीनां तथा12 रूपादीनामपि । इति ततस्तेषां विज्ञानात्मकत्वसाधने रूपादीनामपि तथात्वसाधनं स्यात् । तदुक्तं 4--
श्लोकार्थ-तद्रूप-नील, चेतनादि, अतद्रूप-अनील, अचेतनादि, जितने भी पदार्थ हैं वे सभी तत्अतत्रूप हेतु से उत्पन्न होते हैं इसलिए विज्ञान से अभिन्न हेतु से उत्पन्न हुये वे सुखादिक क्या अज्ञान रूप हैं ? अर्थात् नहीं हैं। इस प्रकार से आप बौद्धों का जो कथन है उसका खण्डन कर दिया है क्योंकि सुखादिक ज्ञान रूप नहीं हैं, प्रत्युत कथंचित् ज्ञान से भिन्न हैं यह बात सिद्ध हो गई।
श्लोकार्थ-आत्मा में जो आल्हाद होता है उसे सुख कहते हैं, ज्ञेय पदार्थों का जानना ज्ञान है और शक्ति, क्रिया से अनुमेय है। युवक की शक्ति कांता के समागम में अनुमान से जानी जाती है। ___ इस वचन से सुखादि अतद्रूप-अज्ञान रूप हैं यह बात सिद्ध हो जाती है। यदि सुखादि विज्ञान से अभिन्न हेतुज हैं तो उपादान की अपेक्षा से हैं या सहकारी अपेक्षा से ? यदि अतद्रूप का उपादान तद्रूप को मानोगे तब तो सभी, सभी के उपादान हो जावेंगे अतः सुखादिक विज्ञान से अभिन्न उपादान वाले नहीं हैं। यदि आप कहें कि सुखादिक में विज्ञान अभिन्न रूप से सहकारी है तब तो जैसे सुखादि में ज्ञान से अभिन्न सहकारीपना है वैसे ही रूपादि में भी ज्ञान से अभिन्न सहकारीपना है अतः उन सुखादि को ज्ञानात्मक सिद्ध करने में रूपादिकों को भी ज्ञानात्मक मानना होगा, क्योंकि कहा भी है
1 तद्रूपा नीलचेतनादयः । अतद्रूपा अनीलाचेतनादयः । 2 अपि तु नैवेत्यर्थः । 3 सुखादीनां विज्ञानरूपत्वं कथमसिद्धमित्युक्ते आह । 4 कार्य । (दि० प्र०) 5 अज्ञानरूपाः। 6 सुखादीनां विज्ञानाभिन्नहेतुजत्वमुपादानापेक्षया सहकार्यपेक्षया वेति विकल्प्य क्रमेण दूषयन्नाह जैनः। 7 इन्द्रिय । (दि० प्र०) 8 सुखादीनां विज्ञानरूपत्वं निराकृत्य तदुपजीविविज्ञानाभिन्नहेतुजत्वं न सिद्धयतीति सापेक्षमाह न चेति । (दि० प्र०) 9 न च सुखादयो विज्ञानरूपा एव येन विज्ञानाभिन्नोपादानाः स्युः। इति पा० (दि० प्र०) 10 सौ० हे स्याद्वादिन् यद्विज्ञानस्य कारणं तत् सुखादीनामुपादानकारणं माभूत्, परन्तु सहकारिकारणमस्तु इत्युक्ते स्याद्वाद्याह । यथा सुखादयो विज्ञानाभिन्नसहकारिणः तथारूपादयोपि सन्तीति । (दि० प्र०) 11 इन्द्रिय । (ब्या० प्र०) 12 यथा विज्ञानस्य सुखादीनाञ्चेन्द्रियमेकं सहकारि तथा विज्ञानस्य रूपादीनाञ्च रसादिरेक एव सहकारीति भावः ननु नाकारणं विषय इत्युक्तत्वात् विज्ञानस्य सहकारीति नाशंकनीयम् । प्राक्तन रसादिक्षणमुत्तरसजातीयविजातीयक्षणस्योपादानसहकारिभावेन यथाक्रममुत्पादकमिति स्वयं सौगतैरभ्युपगतत्वात् । (दि० प्र०) 33 सुखादीनाम् । (दि० प्र०) 14 श्लोकवातिके ।
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