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अष्टसहस्री
[ कारिका ७ दिभावानां सुखज्ञानादिप्रतिनियतपर्यायार्थादेशादेव सुखादीनां ज्ञानदर्शना'भ्यामन्यत्ववचनात् ।
(बौद्धः सुखादिपर्यायान् ज्ञानात्मकान् एवकथयति तस्य निराकरणम्) __ तथापि ज्ञानात्मकाः सुखादयो, ज्ञानाभिन्नहेतुजत्वा'द्विज्ञानान्तरवदिति चेन्न', सर्वथा विज्ञानाभिन्नहेतु जत्वासिद्धत्वात्', सुखादीनां सवद्योदयादिनिमित्तत्वाद्विज्ञानस्य ज्ञानावरणान्तरायक्षयोपशमादिनिबन्धनत्वात् । 'कथञ्चिद्विज्ञानाभिन्नहेतुजत्वं तु रूपालोका दिनानका1न्तिका, यथैव हि ततो13 14विज्ञानस्योत्पत्तिस्तथा'5 रूपालोका दिक्षणान्तरोत्पत्तिर"पीति परैः18 स्वयमभिधानात् । तदेतेन यदभ्यधायि20 ।
ही है और सुख, ज्ञान आदि प्रतिनियत पर्यायाथिकनय की अपेक्षा से ही सकल औपमिक आदि भाव एवं सुखादिक, कथंचित् ज्ञान, दर्शनरूप उपयोग स्वभाव से भिन्न भी माने गये हैं।
[ बौद्ध सुखादि पर्यायों को ज्ञानात्मक सिद्ध करना चाहता है उसका निराकरण ] सौगत-"सुखादि ज्ञानात्मक हैं क्योंकि ज्ञान से अभिन्न एक हेतु से उत्पन्न होने वाले हैं, भिन्न ज्ञान के समान"।
जैन-नहीं, सर्वथा विज्ञान से अभिन्न हेतु से उत्पन्न होना असिद्ध है क्योंकि सुखादि सातावेदनीय के उदय आदि के निमित्त से होते हैं और ज्ञान तो ज्ञानावरण एवं अंतराय के क्षयोपशम आदि के निमित्त से होता है। इसलिए सुखादिक सर्वथा ज्ञान से अभिन्न हेतुज नहीं है किन्तु कथञ्चित् ही हैं ऐसा कहने पर प्रश्न होता है कि कथञ्चित् विज्ञान से अभिन्न हेतु द्वारा उत्पन्न होने से तो ये सुखादि, रूप और आलोक आदि से अनैकान्तिक हो जावेंगे। अर्थात् बौद्धमत में पूर्वरूप लक्षण उत्तर रूप लक्षण के प्रति उपादान रूप है और उत्तरज्ञान लक्षण तो सहकारी है अतः अभिन्न होते हुए भी कार्य भेद स्वीकार करने से व्यभिचार आता है क्योंकि जिस प्रकार उस रूप और आलोक से विज्ञान की उत्पत्ति होती है उसी प्रकार रूप क्षणान्तर और आलोक क्षणान्तर आदि की भी उत्पत्ति होती है ऐसा स्वयं बौद्धों ने कहा है। इसलिए सुखादिक, ज्ञान रूप नहीं हैं किन्तु आप बौद्धों ने जो कहा कि
1 उपयोगस्वभावाभ्याम् । 2 ज्ञानदर्शनाभ्यामन्यत्वेप्यभिन्नत्वमित्याशङ्कय प्राह । 3 अनन्तरातीतज्ञानक्षण । (दि० प्र०) 4 घटज्ञानात् पटज्ञानं विज्ञानान्तरंतद्वत् । (दि० प्र०) 5 स्याद्वादी । (दि० प्र०) 6 आत्मा । (ब्या० प्र०) 7 स्याद्वादिनां प्रति । (ब्या० प्र०) 8 सातवेद्योदय । (दि० प्र०) 9 (न सर्वथा विज्ञानाभिन्न हेतुजत्वं कि तु कथंचिदिति बौद्धेनोक्ते आह)। 10 भो बौद्ध ! तवमते रूपक्षणं रूपसजातीयं जनयद्विजातीयस्य ज्ञानक्षणस्य सहकारिकारणं भवति । एवं सति यद्ज्ञानाभिन्नाह उक्तं तद्ज्ञानात्मकमिति । (ब्या० प्र०) 11 विज्ञान साधनेन । बौद्धमते पूर्वरूपलक्षणस्योत्तररूपलक्षणं प्रत्युपादानत्वेन उत्तरज्ञानलक्षणं सहकारित्वेनाभिन्नहेतुत्वेपि कार्यभेदाभ्युपगमाद्वयभिचारात् । 12 उत्तरक्षणभूतेन । (ब्या० प्र०) 13 व्यभिचारि भवति । (दि० प्र०) 14 प्राक्तनरूपालोकादेः । (ब्या० प्र०) पुरुषात् । (दि० प्र०) 15 नाकारणं विषय इत्यभ्युपगमात् । (दि० प्र०) 16 उत्तरक्षणतत्सुखादीनां विज्ञानरूपत्वेन विज्ञानाभिन्नहेतु जत्वं पूर्वार्द्धउक्तं यतः । (दि० प्र०) 17 क्षणान्तरात उत्पत्तिः । (दि० प्र०) 18 सौगतः। 19 सुखादीनां ज्ञानरूपत्वाभावप्रकारेण । 20 सौगतेन ।
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