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________________ एकान्त शासन में दूषण ] प्रथम परिच्छेद [ ११ सुखादीनां स्वसंवेदन प्रत्यक्षे सर्वदा प्रतिभासनात् । अनुमानविरुद्ध 'श्च पक्षः । तथा हि । चेतनाः सुखादयः, स्वसंवेद्यत्वात् पुरुषवत्' । पुरुषसंसगत्तिषां' स्वसंवेदद्यत्वात्स्वतः संवेद्यत्वमसिद्धमिति चेन्न, जातुचिदस्वसंवेद्यत्वाप्रतीतेस्तथा' वक्तुमशक्तेः - अन्यथा' पुरुषस्य स्वसंवेद्यसुखादिसंबन्धात्स्वसंवेद्यत्वं, न स्वत इति वदतो' निवारयितुमशक्यत्वात्, 'चैतन्यविशेषेण हेतोर्व्यभि - चारप्रतिपादनाच्च" । न ततोऽचेतनत्वसिद्धिः सुखादीनाम् । न चैषां 2 चेतनत्वसाधनेऽपसिद्धान्तः स्याद्वादिनां प्रसज्येत, चैतन्यजीव द्रव्यार्थादेशाच्चेतनत्वप्रसिद्धेः, " सकलौप "शमिका सांख्य- "सुखादिक अचेतन है क्योंकि उत्पत्तिमान् है घटादि के समान ।" इस प्रकार सुखादि को अचेतन रूप से ग्रहण करने वाला अनुमान है । जैन- नहीं, यह अनुमान तो प्रत्यक्ष से बाधित विषय को ग्रहण करने वाला है । चित्-चैतन्य से समन्वित ही सुखादिक पर्यायें स्वसंवेदन प्रत्यक्ष में सर्वदा प्रतिभाषित हो रही हैं । आपका यह पक्ष अनुमान से विरुद्ध भी है अर्थात् प्रकरणसम है । तथाहि-- "सुखादि चेतन है क्योंकि वे स्वसंवेद्य हैं अर्थात् स्वसंवेदनज्ञान से उनका अनुभव हो रहा है जैसे पुरुष चेतन है उसका स्वसंवेदनज्ञान से अनुभव होता है ।" सांख्य - उन सुखादिकों में पुरुष के संसर्ग से स्वसंवेद्यपना होता है स्वतः संवेद्यपना असिद्ध है । जैन - नहीं, क्योंकि सुखादि कदाचित् भी अस्वसंवेद्यरूप में प्रतीति में नहीं आते हैं मतलब वे सदैव ही स्वसंवेद्यरूप प्रतीत हो रहे हैं इसलिये उन्हें पुरुष के संयोग से स्वसंवेद्य कहना शक्य नहीं है। अन्यथा पुरुष में भी स्वसंवेद्य सुखादि का सम्बन्ध होने से वह पुरुष स्वसंवेद्य है स्वतः नहीं है ऐसा कहते हुये हम जैनों का भी निवारण करना शक्य नहीं होगा । अर्थात् हम ऐसा कह सकते हैं कि सुखादिस्वसंवेद्य हैं इनके संसर्ग से ही पुरुष स्वसंवेद्य हुआ है वह स्वयं स्वसंवेद्य नहीं है । ऐसा कहने पर आप हमें रोक नहीं सकेंगे । चैतन्य विशेष से "उत्पत्तिमत्त्वात्" हेतु में व्यभिचार दोष भी आता है इसलिये सुखादिकों में अचेतनत्व की सिद्धि नहीं होती है । इन सुखादिकों को चेतन सिद्ध करने में अपसिद्धान्त दोष भी हम स्याद्वादियों के यहां नहीं आता है । द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा चैतन्य जीवद्रव्य में चेतनत्व प्रसिद्ध 1 सत्प्रतिपक्षः प्रकरणसम इत्यर्थः । 2 यथात्माचेतनः । ( दि० प्र०) 3 सुखादीनाम् । 4 सुखादीनामिति सम्बन्धः कार्यः । ( दि० प्र०) 5 तत एवेति शेषः । तथा पुरुषसंसर्गादित्यादिप्रकारेण । 6 अस्वसंवेद्यत्वाप्रतीतावपि तथा वक्तुं शक्यं यदि । ( दि० प्र० ) 7 जैनस्य । 8 उत्पत्तिमत्त्वेपि चैतन्यविशेषोऽचेतनत्वाभाववान्यतः । 9 उत्पत्तिमत्त्वादिति हेतोः । 10 प्रागेव सांख्यमोक्षनिराकरणप्रस्तावे । ( दि० प्र० ) 11 किञ्च सांख्यमोक्षनिराकरणावसरे प्रोक्त एव तदनुमान दोषशेषोत्रद्रष्टव्यः । ( दि० प्र० ) 12 सुखादीनाम् । ( दि० प्र०) 13 एव । ( ब्या० प्र०, दि० प्र० ) 14 द्रव्यार्थिकनयापेक्षया । 15 एवं ज्ञानसुखादीनामभेदः स्यादित्युक्ते आह 16 हि सुखादीनामचेतनत्वप्रतिज्ञाकथमित्याह । (दि० प्र०) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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