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________________ अष्टसहस्री [ कारिका ७ केन स्वभावेन व्यापनीय इत्यनवस्था । अथैका'दृशेन स्वभावेन सुखादयश्चैतन्येन व्याप्यन्ते' तदानेकेन स्वभावेन 'सजातीयेनेत्युक्तं स्यात् । तत्र व सैवानवस्था । न च गत्यन्तरमस्ति येन सुखादिव्याप्यकं चैतन्यं सिध्द्येदिति । तदेतच्चित्रज्ञानेपि समानम् । तस्य पीताद्याकारव्यापिन: स्वयं संवेदनान्न दोष इति चेत्, सुखादिव्यापिनश्चैतन्यस्य सह क्रमेण च स्वयं संवेदनात्कथमुपालम्भः स्यात् ? न हि दृष्टेऽनुपपन्नं नाम । न च सुखादीनां चैतन्यव्याप्तत्वसंवेदनं भ्रान्तम्, अचेतनत्वग्राहिप्रमाणाभावात् । अचेतनाः सुखादय, उत्पत्तिमत्वाद् घटादिवदित्यनुमानं सुखाद्यचेतनत्वग्राहीति चेन्न, तस्य प्रत्यक्षबाधित विषयत्वात् दित्समन्वितानामेव तो सभी सुखादि एकस्वरूप हो जावेंगे। यदि आप कहें कि अनेक स्वभाव से व्यापक है तब तो वह चैतन्य भी अनेक स्वभाव वाला होकर अन्य अनेक स्वभाव से व्याप्त हो जावेगा। इस प्रकार से अनवस्था दोष आ जावेगा । अथवा एक सदृश स्वभाव से वे सुखादिक चैतन्य से व्याप्त होते हैं, तब तो अनेक स्वभाव सजातोय ही मानने होंगे और उसमें भी वही अनवस्था दोष आ जावेगा क्योंकि इनसे भिन्न अन्य कोई गति ही नहीं है कि जिससे सुखादिकों में व्यापक एक चैतन्य सिद्ध हो सके। अर्थात् आपके द्वारा माना हुआ सुखादिकों से व्याप्त एक चैतन्य सिद्ध नहीं होता। जैन-ये सभी दोष तो चित्रज्ञान में भी समान हैं क्योंकि पीतादि अनेक आकारों में चित्रज्ञान व्यापक होता हआ क्या एक स्वभाव से व्याप्त होता है या अनेक स्वभाव से ? इत्यादि उपर्यक्त दूषण घटित हो जावेंगे। बौद्ध-उन पीतादि आकारों में व्यापी चित्रज्ञान का एक-अनेक स्वभाव के बिना ही स्वयं संवेदन होने से अनुभव आने से कोई दोष नहीं आता है। जैन-तब सुखादिकों में व्यापी चैतन्य का युगपत् और क्रम से स्वयं संवेदन हो रहा है पुनः हमें भी आप कैसे उलाहना देते हैं ? क्योंकि दृष्ट-सुखादि में व्यापी चैतन्य का अनुभव होने पर भी उसे अनुपपन्न–गलत कहें यह बात ठीक नहीं है । सुखादिकों का चैतन्य से व्याप्त होना यह ज्ञान भ्रान्त है ऐसा भी नहीं कह सकते हैं क्योंकि सुखादि चैतन्य को अचेतन रूप से ग्रहण करने वाले प्रमाण का अभाव है। 1 एकेन सदृशेन । (ब्या० प्र०) 2 तथा एकरूपतापत्त्यानवस्थायाः परिहारो भवतीत्यभिप्रायः । (दि० प्र०, ब्या० प्र०) 3 एकादृशेनेति प्रतिपदम् । (दि० प्र०) 4 इतो जैनो ब्रूते। 5 पीताद्याकाराणां चित्रज्ञानं व्यापकं भवक्किमेकेन स्वभावेनानेकेन वेत्यादिप्रकारेण । 6 व्यापकस्य चित्रज्ञानस्य । 7 एकानेकस्वभावमन्तरेणैव । 8 सूखादिव्यापिनि चैतन्येऽनुभूते। 9 दृष्टे: प्रत्यक्षात् यद्गृह्यते तद्वस्त्वनुपपन्नं विरुद्धं नहि । (दि० प्र०) 10 न ह्यनुपपन्नं किन्तुपपन्नमेवेत्यत्र उपपत्ति दर्शयति । 11 प्रत्यक्षेण प्रतीतेऽर्थे यदि पर्यनयुज्यते स्वभावरुत्तरं वाच्यं दृष्ट कानुपपन्नता। (ब्या० प्र०) 12 भावरूपादीनाम् । (ब्या० प्र०) 13 अनुमानस्य । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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