________________
एकान्त शासन में दूषण ]
प्रथम परिच्छेद सम्भवात् ।' इति कश्वित् 'सोप्यप्रेक्षा पूर्ववादी, तथा' सति चित्रज्ञाने संविदा कारवदेकस्य पीताकारस्य नीलाकारस्य च सद्भावसिद्धौ परस्परापेक्षयानेकत्वसिद्धेरनेक चैतन्यव्याप्तस्यानेकाकारस्य' चित्र ज्ञानस्यान्तरेकानेकात्मकत्वसाधने "निदर्शनत्वोपपत्तेः ।
[सांख्यः सुखादिकमचेतनं स्वीकरोति तस्य विचारः क्रियते ] स्यान्मतं12, सुखादीनां चैतन्यं व्यापकं भवत् किमेकेन स्वभावेन भवत्यनेकेन स्वभावेन वा ? यद्येकेन5 तदा तेषामेकस्वरूपत्वापत्तिः । अथानेकेन तदा सोप्य'नेकस्वभावः परेणाने
वाला माध्यमिक बौद्ध ज्ञान को एक निरंश रूप ही सिद्ध करना चाहता है और कहता है कि यदि आप जैन लोग ज्ञान को एकरूप नहीं मानोगे तब तो एक नीलकमल के एक दल में एक-एक अणु के प्रति भेद मानने से प्रत्येक में जानने योग्य, जानने वाला और जानना ऐसे तीन-ती पड़ेंगे पुनः प्रत्येक ज्ञान के एक-एक अंश में तीन-तीन अंशों को मानते-मानते नाक में दम आ जावेगा कहीं पर भी विराम नहीं हो सकेगा इत्यादि रूप से जैनियों पर कटाक्ष कर रहा है, किन्तु जैनाचार्य इन दोषों से कब डरने वाले हैं। उन्होंने कह दिया कि भाई ! हम तो सभी वस्तुओं को कथंचित् एक, कथंचित् अनेक दोनों रूप सिद्ध करते हैं। न सर्वथा एकरूप मानते हैं, न सर्वथा अनेकरूप । दूसरी बात यह भी है कि हम ज्ञानमय चैतन्य तत्त्व और पुद्गलमय बाह्य तत्त्वों को भी मान रहे हैं। हमारे यहाँ अनवस्था पिशाचिनी का प्रवेश ही नहीं हो सकता है। आपके यहाँ भी चित्रज्ञान हो, चाहे निरंश एक ज्ञान । द्रव्य की अपेक्षा सभी एकरूप हैं एवं पर्यायों की अपेक्षा सभी ज्ञान अनेक रूप हैं। इसका स्पष्टीकरण बहुत बार किया जा चुका है।
[सांख्य सुखादि को अचेतन स्वीकार करता है उस पर विचार ] सुखादिक प्रधान के परिणाम होने से अचेतन हैं इसलिये चैतन्य के साथ उनकी व्याप्ति का अभाव है ऐसा मानने वाला सांख्य कहता है
सांख्य-सुखादिकों के साथ व्याप्त होता हुआ चैतन्य क्या एक स्वभाव से व्याप्त होता है या अनेक स्वभाव से ? यदि आप जैन कहें कि एक स्वभाव से वह चैतन्य सुखादिकों के साथ व्यापक है
1 इतः स्याद्वादी प्रा ह। 2 स्याद्वाद्याह । (दि० प्र०) 3 चित्राकारस्यापायेपि तस्य चित्रज्ञानस्य सम्भवादिति पूर्वोक्ते सति । 4 संविदाकारस्येवैकस्येति खपुस्तकपाठः। एकस्य संविदाकारस्य यथा परस्परापेक्षयानेकत्वम् । 5 स्वस्वरूपापेक्षया । 6 अनेकचैतन्यं नीलपीतादिप्रतिभास: । तत्र व्याप्तस्य । 7 बस: । (दि० प्र०) 8 विशेष्यस्य। व्यापकस्य।' 9 अन्तस्तत्त्वस्य ज्ञानादेः। 10 अन्त इत्यव्ययपदत्वात् षष्टयतं संवेदनलक्षणस्यान्तस्तत्वस्यानेकान्तात्मकत्वस्य साधने चित्रज्ञानस्योदाहरणत्वं घटते। (दि०प्र०) 11 अन्तस्तत्वमेकात्मकमस्ति, चित्रज्ञानवदिति। 12 सुखादीनां प्रधानपरिणामत्वेनाचेतनत्वमभ्युपगम्य तेषां चैतन्यव्याप्तत्वाभावं मन्वानः साङ्ख्यः प्राह । 13 व्याप्यानाम् । 14 भवत्त्येकेनस्वभावेन । इति पा० (दि० प्र०) 15 भो जैन। 16 सुखादीनाम् । (दि० प्र०) 17 सोप्यनेकस्वभावोऽपि । (दि० प्र०)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org