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________________ अष्टसहस्री [ कारिका ७ परस्परं भिन्नैर्भवितव्यम् । 'तत्रैकनीलपरमाणुसंवेदनस्याप्येवं वेद्यवेदकसंविदाकारभेदान्त्रितयेन भवितव्यम् । वेद्याकारादिसंवेदनत्रयस्यापि प्रत्येकम परस्ववेद्याकारादिसंवेदनत्रयेण' । इति परापरवेदनत्रयकल्पनादनवस्थानान्न क्वचिदेकवेदनसिद्धि: संविदद्वैतविद्विषाम् । 'क्वचिदप्येकात्मकत्वानभ्युपगमे च कुतो नानात्मव्यवस्था ? वस्तुन्येक त्रापरैकवस्त्वापेक्षयानेकत्वव्यवस्थोपपत्तेः । "क्वचिदैक्योपगमे वा कथं चित्रमतौ नैक्यमविरुद्धं ? चित्राकारापायेपि तस्य12 का सद्भाव होने से वेद्य-वेदक एवं संविदाकार के भेद से तीन रूप हो जावेंगे और वेद्याकार, वेदकाकार, संविदाकार इन तीनों में से प्रत्येक में दूसरे-दूसरे स्ववेद्याकार आदि तीन संवेदन माने जावेंगे। इस प्रकार से परापर-आगे-आगे के प्रत्येक ज्ञान में ज्ञानत्रय की कल्पना करने से अनवस्था दोष आ जावेगा । पुनः हमारे (संवेदनाद्वैतवादी के) द्वेषी आप स्याद्वादियों के यहाँ कहीं पर भी एक ज्ञान की सिद्धि नहीं हो सकेगी। तब तो ज्ञान अथवा बाह्य पदार्थ इन किसी में भी एकात्मपने को स्वीकार न करने से आपके यहाँ नाना आत्माओं की व्यवस्था भी कैसे होगी क्योंकि एक चित्रज्ञानरूप वस्तु में अपर एक वस्तु की अपेक्षा से अनेकत्व की व्यवस्था हो जावेगी अथवा यदि आप ज्ञान या बाह्य पदार्थों में कहीं पर भी एकत्व स्वीकार करेंगे तब तो चित्रज्ञान में भी एकपना अविरुद्ध क्यों नहीं हो जावेगा ? अर्थात् चित्रज्ञान में एकपना विरोध रहित ही है ऐसा सिद्ध हो जावेगा। क्योंकि चित्राकार के अभाव में भी चित्रज्ञान में एकत्व होना सम्भव है। जैन-ऐसा कहते हुये भी आप प्रेक्षावान् नहीं हैं। चित्राकार के अभाव में भी यदि चित्रज्ञान सम्भव है तब तो चित्रज्ञान में ज्ञानाकारवत् एक पीताकार और नीलाकार का भी अपने-अपने स्वरूप से सद्भाव सिद्ध हो गया। पुनः परस्पर की अपेक्षा से उस चित्रज्ञान में अनेकत्व ही सिद्ध हो जाता है । अतः अनेक चैतन्य से व्याप्त हुआ अनेकाकार रूप यह चित्रज्ञान अंतस्तत्त्व ज्ञानादि में एकानेकत्व सिद्ध करने के लिये उदाहरणरूप सिद्ध हो जाता है। भावार्थ-आचार्यश्री ने अहंत भगवान के मत को अमृतस्वरूप कहा है और बतलाया है कि इस अमृतमय जैन शासन में सम्पूर्ण वस्तुयें अनेकान्त स्वरूप हैं और अनेकांत धर्म से एकांत धर्म बाधित हो जाता है । आचार्यश्री ने सुख, ज्ञान, दर्शन आदि अनेक गुणों से सहित चैतन्यतत्त्व को अनेक धर्मात्मक सिद्ध किया है और पुद्गल आदि बाह्य पदार्थों को भी आकार, गुण, पर्याय आदि की अपेक्षा अनेक धर्मात्मक माना है। इन जीव, अजीव तत्त्वों को अनेकांतरूप सिद्ध करते हुये उदाहरण में चित्रज्ञानवत्' कह दिया है क्योंकि आचार्यश्री चित्रज्ञान को कथंचित् एकरूप कथंचित् अनेक रूप मान रहे हैं किन्तु इस पर एकांतवादी बौद्ध चित्रज्ञान को सर्वथा एकरूप सिद्ध करने के लिये अतिसाहस करता है और जब सफलीभूत नहीं हो पाता है तब उसी का भाई ज्ञान को निरंश एक रूप मानने 1 तेषु मध्ये । 2 नानाप्रतिभाससद्भावत्वेन । 3 स्वकीय । (दि० प्र०) 4 भवितव्यमित्यन्वयः । 5 चित्राद्वैतवादिनाम् । (दि० प्र०) 6 जैनादीनाम् । 7 ज्ञाने बहिरर्थे वा। 8 तव जैनस्य । 9 चित्रज्ञाने। 10 नीलादिप्रतिभास । (ब्या० प्र०) 11 ज्ञाने बहिरर्थे वा। 12 चित्रमतावैक्योपगमस्य । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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