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एकान्त शासन में दूषण ]
प्रथम परिच्छेद
[ ७
""कं नु स्यादेकता न स्यात्तस्यां चित्रमतावपि । यदीदं रोचते बुध्द्यं चित्रायं तत्र के वयम् ।" इति ।
[ निरंशेकज्ञानवादी बोद्धश्चित्राद्वैतवादिनं निराकरोति ]
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ननु' चैकस्यां मतौ ' 'चित्रतापायेपि संवेदन मात्रस्य भावान्न स्वरूपस्य स्वतो गतिविरुध्यते । संवेदनमात्रस्य त्वपाये सा 10 विरुध्द्येतेति चेन्न ", " तदभावेपि 3 नानापीतादिप्रतिभाससद्भावात्तदविरोधात् '" । " नन्वेवं 7 'नीलवेदनस्यापि प्रतिपरमाणु भेदानीलाणुसंवेदन:
श्लोकार्थ-क्या चित्रज्ञान 'एकता है ? अर्थात् उस चित्रज्ञान में भी एकता नहीं है । यदि उस चित्रबुद्धि - ज्ञान में चित्रत्व ही प्रतिभासित हो रहा है, तो हम लोग क्या कर सकते हैं ? अर्थात् हम भी ऐसा कह सकते हैं कि यदि ज्ञान में एकपना है तो वह ज्ञान चित्रज्ञान नहीं है । यदि वह ज्ञान चित्रज्ञान है तब उसमें एकपना कैसे हो सकता है ? नहीं हो सकता, किन्तु वह ज्ञान एक भी है और चित्रज्ञान भी है यह तो बहुत ही आश्चर्य की बात है ।
( पीतादि अशेष आकार से शून्य वस्तु में 'यह ऐसी है' इस प्रकार समझना अशक्य है अतः चित्रज्ञान में एकत्व का वास्तविकपना कैसे सिद्ध होगा ? इस प्रकार कहने वाले चित्राद्वैतवादियों का खण्डन करते हुए निरंशज्ञानवादी कहते हैं ।)
[ निरंशज्ञानवादी बौद्ध चित्रज्ञानवादियों का खण्डन करता है ]
निरंकज्ञानवादी - एक चित्रज्ञान में पीतादि अनेकाकार रूप चित्रता का अभाव होने पर भी संवेदनमात्र – एकज्ञानमात्र का ही सद्भाव है क्योंकि स्वरूप का ज्ञान स्वतः विरुद्ध नहीं है, किन्तु संवेदनमात्र - ज्ञानमात्र के अभाव में तो वह ज्ञान विरुद्ध हो सकता है ।
जैन- नहीं । एक चित्रज्ञान में संवेदनमात्र का अभाव होने पर भी अनेक पीतादि के प्रतिभास का सद्भाव है अतः अनेकाकार का विरोध नहीं है अर्थात् चित्रज्ञान में तो एकत्व का ही विरोध है । निरंशैकज्ञानवादी माध्यमिक- यदि आप जैन इस प्रकार से एक को अनेक रूप से स्वीकार करोगे तब तो नीलज्ञान में भी प्रतिपरमाणु (परमाणु- परमाणु) से भेद मानना होगा पुनः सभी नील अणु-अणु के ज्ञान परस्पर भिन्न ही हो जायेंगे, तब उस नील परमाणु के ज्ञान में भी नाना प्रतिभास
1 पीताद्याकाराणां स्याद्वाद्यभिमतानाम् । 2 चित्रत्वम् । 3 चित्राद्वैतवादिनः । (दि० प्र०) 4 पीताद्यशेषाकारशून्यस्येदन्तयावगन्तुमशक्यत्वात्कथमेकत्वस्य वास्तवत्वमिति प्रत्यवस्थितान् चित्रज्ञानवादिनः प्रत्याचक्षाणो निरंश कज्ञानवादी प्राह । 5 चित्रज्ञाने | 6 पीताद्याकाराणाम् । 7 एकस्य । 8 चित्रज्ञाने संवेदन मात्रस्वरूपस्य | 9 चित्रज्ञानात् । 10 स्वरूपस्य स्वतो गतिः । ( दि० प्र०) 11 जैनः | 12 एकस्य 'चित्रज्ञानस्य संवेदनमात्रस्याप्यभावे । 13 अत्राह चित्राद्वैतवादी । तस्य संवेदनमात्रस्याभावेपि नानापीतादितस्याः स्वरूपस्य स्वतोगते रविरोधात् । ( दि० प्र०) 14 पीताद्यशेषाकारशून्यस्य इदंतयावगन्तुमशक्यत्वात् कथमेकत्वस्यवास्तवत्वमिति प्रत्यवस्थितांश्चित्रज्ञानवादिनः प्रत्याचक्षाणो निरंशैकज्ञानवादी प्राह । ( दि० प्र०) 15 अतश्चित्रज्ञानस्यैकत्वविरोधः । 16 निरंशैकवादी माध्यमिकः प्राह । 17 भो जैन ! त्वदुक्तप्रकारेण । एकस्यानेकत्वाङ्गीकारप्रकारेण ।
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