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________________ अष्टसहस्री [ कारिका ७ चेत्', तत एवैका कारस्यावास्तवत्वमस्तु, तस्यापि' पीताद्याकारप्रतिभासेभ्यो नर्थान्तरतायामेकत्वविरोधादर्थान्तरतायां संवित्त्यभावात्', संवित्तौ वा ज्ञानान्तरत्वप्रसक्तेविशेषाभावात् । ततो' न चित्रज्ञानेऽनेकाकारप्रतिभासस्यैव प्रेक्षावद्भिरवास्तवत्वं शक्यं कल्पयितुं, 10येनेदमेवाभिधीयमानं शोभेत"foll स्यात्सा 12चित्रतकस्यां न स्यात्तस्यां 13मतावपि । 14यदीदं स्वयमर्थेभ्यो।5 रोचते तत्र के वयम्।।" इति । न 1 पुनरिदमपि ही असम्भव हो जावेगा अथवा आप प्रतिभास मान भी लेवें तो भी ज्ञानान्तर हो जावेगा अर्थात् वह चित्रज्ञान ही नहीं रहेगा किन्तु दूसरा ही ज्ञान हो जावेगा, अतः वह अनेकाकार अवास्तविक है । जैन-उसी हेतु से आप चित्रज्ञान में एकाकार को भी अवास्तविक ही क्यों न मान लेवें ? यदि चित्रज्ञान पीतादि आकाररूप प्रतिभास से अभिन्न है, तब तो चित्रज्ञान में एकत्व का विरोध हो जाता है। तथा यदि भेद है तो संवित्ति नहीं हो सकेगी अर्थात् पीतादि आकाररूप प्रतिभास से चित्रज्ञान यदि भिन्न है, तो पीतादि अशेषाकार से शून्य चित्रज्ञान तो प्रतीति में भी नहीं आ सकता है अथवा यदि आप कहें कि पीतादि आकारों के प्रतिभास से वह चित्रज्ञान भिन्न है फिर भी उसका ज्ञान होता है तब तो वह भिन्न ज्ञान ही हो जावेगा। क्योंकि जब सभी ज्ञान भिन्न हैं तब इस चित्रज्ञान में ही क्या विशेषता रहेगी? इसलिये चित्रज्ञान में अनेकाकार प्रतिभास-ज्ञान को ही अवास्तविक कहना शक्य नहीं है जिससे कि आपका यही कथन शोभित हो सके, कि श्लोकार्थ-क्या उस एक चित्रज्ञान में चित्रता-अनेकता हो सकती है ? अर्थात् उस एक चित्रज्ञान में अनेकता नहीं है और यदि ज्ञान लक्षण पदार्थों को चित्रज्ञान की एकता ही प्रतिभासित हो रही है, तो हम (माध्यमिक) उसका निवारण कैसे कर सकते हैं ? अर्थात् अविद्या से उपकल्पित होने से ऐसा प्रतिभासित होता है इसमें विचार करने वाले हम लोग नहीं हैं। अर्थात् आपका यह कथन शोभित नहीं हो सकता है । हम ऐसा कह सकते हैं कि 1 न्यायात् । (दि० प्र०) 2 चित्रज्ञाने । 3 संवेदनान्तरत्वापत्तेः। 4 एकाकारस्यापि । (दि. प्र.) 5 अभेदे । 6 पीताद्याकारप्रतिभासेभ्यश्चित्रज्ञानस्य भेदे। 7 अर्थान्तरत्वे सति पीताद्य शेषाकारशून्यस्य चित्रज्ञानस्याप्रतीयमानत्वाद्धेतोः। 8 अर्थान्तरत्वेपि । 9 उपसंहरति जैनः । 10 कूतः । (दि० प्र०) 11 मम दूषणं किम । (दि० प्र०) 12 अनेकता। 13 चित्रज्ञाने। 14 चित्रज्ञानस्यैकत्वम् । 15 ज्ञानलक्षणेभ्यः। 16 प्रतिभासते। 17 वयं माध्यमिका निवारकाः कथं भवाम: ? 18 संवेदनाद्वैतवादिनो वयम् । (दि० प्र०) 19 अत्राह चित्राद्वैतवादी हे संवेदनाद्वैतवादिन् इदं पुनर्यदुक्तं त्वयातन्न । (दि० प्र०) 20 शोभेतेति पूर्वेणान्वयः । कि तत् ? तदाह ।-एक चेच्चित्रता न स्याच्चित्रं चेदेकता कुतः ? एकं च तच्च तच्चित्रमेतच्चित्रतरं महदिति । अन्यच्च स्वयमाह। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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