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एकान्त शासन में दूषण ]
प्रथम परिच्छेद
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चित्रज्ञाने' पीताद्याकारप्रतिभा' सस्याविद्योपकल्पितत्वादेकात्मकत्वमेव 'वास्तवमिति चेत्कथमेकाकाकारयोः प्रतिभासाविशेषेपि वास्तवेतरत्व' प्रविवेकः ? 'एकाकारस्यानेकाकारेण विरोधा'त्तस्यावास्तवत्वे कथमेकाकारस्यैवावास्तवत्वं न स्यात् ' ? 'स्वप्नज्ञानेऽनेकाकारस्या 'वास्तवस्य ंप्रसिद्धेश्चित्र"ज्ञानेपि तस्यावास्तवत्वं युक्तं कल्पयितुमिति चेत्केशादावेका “कारस्याप्यवास्तवत्वसिद्धेस्तत्रावास्तवत्वं कथमयुक्तम् ? " पीताद्याकारस्य संवेदनादभेदेऽनेकत्व - विरोधादभेदे" प्रतिभासासम्भवात् प्रतिभासे वा संवेदनान्तर "त्वापत्तेरवास्तवत्वमेवेति
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चित्राद्वैतवादी - चित्रज्ञान में पीतादि आकारों का जो प्रतिभास है वह अविद्या से उपकल्पित है । वास्तव में तो वह चित्रज्ञान एकात्मक ही है ।
जैन - तब तो एक और अनेक आकारों में प्रतिभास- ज्ञान समान होने पर भी यह वास्तविक है, यह अवास्तविक है यह विवेक ( भेद ) कैसे होगा ? अर्थात् यह चित्रज्ञान है और उसमें नील, पीतादि ज्ञान अनेकाकार रूप हैं दोनों ज्ञान समान हैं फिर भी चित्रज्ञान का एकाकार सच्चा है अनेकाकार झूठा है यह भेद कैसे होगा ?
चित्राद्वैतवादी - जो एकाकार है वह अनेकाकार से विरुद्ध है । इसीलिये वह अनेकाकार अवास्तविक है अर्थात् एकाकार ज्ञान में अनेकाकार से विरोध आना स्पष्ट ही है ।
जैन- तो इस प्रकार से एकाकार हो अवास्तविक क्यों न हो जावे क्योंकि अनेकाकार चित्रज्ञान में एकाकार से तो विरोध प्रत्यक्ष है ।
चित्राद्वैतवादी - स्वप्नज्ञान में अनेकाकार को अवास्तविकता सिद्ध है अतः एक चित्रज्ञान में भी उस अनेकाकार की अवास्तविकता मानना युक्त ही है ।
जैन - तब तो केश आदि में एकाकार की अवास्तविकता सिद्ध है तो उस एकाकार को भी अवास्तविक कहना अयुक्त कैसे होगा ?
माध्यमिक-पीतादि आकार, ज्ञान से अभिन्न हैं इसलिये यह ज्ञान है ये पीतादि आकार हैं इस रूप अनेकपने का विरोध है। यदि आप जैन पीतादि आकार को ज्ञान से भिन्न मानोगे तो प्रतिभास
1 सत्यम् । ( दि० प्र० ) 2 प्रतिभासनस्य । इति पा० ( व्या० प्र०, दि० प्र०) 3 अत्राह जैन हे संवेदनाद्वैतवादिन् उभयत्र प्रकाशात्मकतया अभेदेऽप्येकस्य वास्तवमनेकस्यावस्तुभूतत्वमिति विवेकस्तव कथम् । ( दि० प्र० ) 4 भेदः । ( दि० प्र० ) 5 अनेकाकारस्य । ( दि० प्र०) 6 परः । (दि० प्र०) 7 उभयत्र विरोधाविशेषात् । 8 उभयोरपि प्रतिभासत्वे विशेषो नास्ति तथाप्येको वास्तव : एकोवास्तव इति पृथगात्मा कथम् । ( दि० प्र० ) 9 करितुरगादि । ( ब्या० प्र० ) 10 लोके । 11 एकस्मिन् । 12 अनेकाकारस्य । 13 केशोंडुक | ( ब्या० प्र ० ) 14 मशकादि । ( ब्या० प्र०, दि० प्र०) 15 एकाकारे । 16 पीताद्याकारः संवेदनादभिन्नो भिन्नो वेति विकल्प्य क्रमेण दूषयति माध्यमिकः । 17 इदं संवेदनमिमे पीतादय इति । 18 यतएवं | ( दि० प्र० ) 19 तर्हि तच्चित्रज्ञानं न भवति किन्तु तत्र ज्ञानान्तरमेव स्यात् ।
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