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________________ २ ] अष्टसहस्री . [ कारिका ७ सर्वथा निर्बाधत्वेन परितोषकारित्वाच्च । ततो बाह्याः सर्वथैकान्तास्तदभिनिवेशिनश्च वादिनः । ते चाप्ताभिमानदग्धा एव विसंवादकत्वेन' तत्त्वतो नाप्तत्वाद्वयमाता' इत्यभिमानेन स्वरूपात्प्रच्यावितत्वाद्दग्धा इव दग्धा इति "समाधिवचनत्वात्, तेषां स्वेष्टस्य सदाद्यकान्तस्य दृष्ट बाधनात् । अनेकान्तात्मकवस्तसाक्षात्करणं बहिरन्तश्च सकलजगत्साक्षीभूतं 4 विपक्षे प्रत्यक्षविरोध लक्षणमनेन” दक्षयति'* । सदायेकान्तविरोध स्यानेकान्तात्मकवस्तुसाक्षात्करणलक्षणत्वाद्, बहिरिवान्तरपि तत्त्वस्यानेकान्तात्मकतया सकलदेशकालवर्तिप्राणिभिरनुभवनात् सुनिश्चितासंभवद्बाधकप्रमाणत्वसिद्धेः। न हि किञ्चिद्रू-23 मत से बाह्य सर्वथा एकांत मत तथा उसके आग्रहवादी जन हैं वे आप्त के अभिमान से दग्ध ही हैं वे विसंवादकपने से वास्तव में अनाप्त हैं। "हम आप्त हैं" इस प्रकार के अभिमान से तथा आप्त के स्वरूप से च्युत होने से एवं जले हुये के समान होने से ही वे दग्ध हैं इस प्रकार से यह समाधान रूप उपचारी वचन है क्योंकि उनके स्वमत-इष्ट मत सत् आदि एकांतवाद रूप हैं, उनमें प्रत्यक्ष प्रमाण से बाधा आती है। 'जो अनेकांतात्मक वस्तु को साक्षात्कार करने रूप सकल जगत को साक्षीभूत है एवं विपक्ष में जिसका लक्षण प्रत्यक्ष से विरुद्ध है, ऐसा अंतरंग एवं बहिरंग तत्त्व है ऐसे तत्त्व का "स्वेष्टं दृष्टेन बाध्यते" इस कथन के द्वारा समर्थन करते हैं।" सत् आदि रूप जो एकांत है उस एकांत से विरुद्ध जो वस्तु है वह अनेकांतात्मक वस्तु के साक्षात्करण लक्षण वाली है एवं बाह्य पदार्थों के समान अंतस्तत्त्व भी अनेकांतात्मक रूप से सम्पूर्ण देशकालवर्ती प्राणियों को अनुभव में आता है क्योंकि अनेकांतात्मक वस्तु का साक्षात्करण सनिश्चितअसंभवबाधक-प्रमाण से सिद्ध है। अर्थात् सत-असत् आदि रूप जो एकांत तत्त्व है उसको बाधित करने वाला अनेकांत विद्यमान है जो कि अंतस्तत्त्व और बाह्य पदार्थों को सिद्ध करने वाला है। "ज्ञानरूप चेतन वस्तु या अन्य अचेतन पदार्थ आदि कोई भी वस्तु रूपान्तर से विकल सत्-असत्, नित्य-अनित्य आदि एकान्त रूप है ऐसा हम नहीं देखते हैं जैसे कि एकान्त रूप से आप बौद्ध आदि | आग्रहिणः। 2 कपिलादयः । (ब्या० प्र०) 3 तत्त्वे विप्रतिपत्तिजनकत्त्वेन । (ब्या० प्र०) 4 परमार्थतः । (व्या० प्र०) 5 वयमाप्ता इत्यभिमानः कुत इत्युक्ते समर्थन मिदम् । (ब्या० प्र०) 6 आप्तस्वरूपात् । 7 उज्झित: (दि० प्र०) 8 पातितत्वात् । (ब्या० प्र०) 9 यथादग्धं वस्त्वसारम् । (ब्या० प्र०) 10 उपचारिवचनत्वात् । 11 प्रत्यक्षेण । (ब्या० प्र०) 12 त्वमेव मोक्षमार्गस्य प्रणेता न कपिलादीति प्राक्तनमेव साध्यम् । (व्या० प्र०) 13 बहिस्तत्त्वमन्तस्तत्त्वं च । 14 प्रतीतम् । (दि० प्र०) 15 एकान्तात्मके। (ब्या० प्र०) 16 प्रत्यक्षविरोधो लक्षणं यस्येति बसः (बहिरन्तश्चेति विशेष्यमत्र)। 17 स्वेष्टं दृष्टेन बाध्यते इत्यनेन । 18 समर्थयति । 19 बाधनस्य । 20 अनेकान्तात्मकमेवास्तीति कथं दक्षयतीत्त्याह । (दि० प्र०) 21 उपलम्भात् । (दि० प्र०) 22 अनेकान्तात्मकवस्तुसाक्षात्करणस्य। 23 सद्रूपं रूपान्तरेणासत्त्वेन रहितम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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