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________________ श्रीमद्विद्यानन्दिस्वामिविरचिता अष्टसहस्त्री (द्वितीय भाग) अनुवादकत्री-आर्यिका ज्ञानमती त्वन्मतामृतबाह्यानां सर्वथैकान्तवादिनाम् । आप्ताभिमानदग्धानां स्वेष्टं दृष्टेन बाध्यते ॥७॥ [ जिनधर्मोऽमृतमस्तीति जनाः ब्रुवंति ] त्वन्मतमनेकान्तात्मकं वस्तु तज्ज्ञानं च। तदेवामृतम्, अमृतस्य मोक्षस्य कारणत्वात् भगवान् अर्हत ही युक्ति शास्त्र से अविरोधी वचन वाले होने से और सुनिश्चितासंभवद्बाधक प्रमाण वाले होने से सर्वज्ञ और वीतराग हैं यह बात कही गई है अतः आप ही मोक्षमार्ग के प्रणेता महान् हैं अन्य कपिल आदि नहीं हैं क्योंकि ___ कारिकार्थ- हे भगवन् ! आपके मत रूप अमृत से जो बहिर्भत हैं सर्वथा एकांतरूप मत को कहने वाले हैं और “मैं ही आप्त हूँ" इस प्रकार के अभिमान से जो दग्ध हैं उनका इष्ट-मत प्रत्यक्ष प्रमाण से बाधित होता है ।।७।।। [ जैन धर्म अमृत स्वरूप है ऐसा जैन कहते हैं ] जो आपका मत है वह अनेकांतात्मक वस्तु है, वह मत और उसका ज्ञान वही अमृत है क्योंकि अमृतरूप मोक्ष का कारण है और सर्वथा बाधारहित रूप से परितोष-संतोष को करने वाला है आपके 1 त्वन्मतमनेकान्तात्मकं वस्तु तद्ज्ञानं वा तदेवामृतममृतस्य मोक्षस्य कारणत्वात् तस्माद्बाह्यानाम् । (दि० प्र०) 2 सदसन्नित्यानित्यायेकान्तदुराग्रहयुक्तानाम् । (दि०प्र०) 3 वयमेवाप्ता इत्यभिमानेन प्रज्वलितानाम् । (दि०प्र०) 4 नित्यत्वाद्येकान्ततत्त्वम् । 5 प्रत्यक्षेण । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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