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एकान्त शासन में दूषण ]
प्रथम परिच्छेद
[ ३
'पान्तरविकलं सदसन्नित्यानित्याद्येक कान्तरूपं 'संवेदनमन्यद्वा ' संपश्यामो यथात्र' प्रतिज्ञायते', 'चित्रज्ञानवत्कथञ्चिद' सङ्कीर्णविशेषैकात्मनः "सुखादिचंतन्यस्य वर्णसंस्था " नाद्यात्मनः स्कन्धस्य च प्रेक्षणात् ।
[ चित्राद्वैतवादी चित्रज्ञानं एकरूपं साधयितुं प्रयतते ]
स्यान्मतं2 “सुखादिचैतन्यमसंकीर्णविशेषात्मकमेव न पुनरेकात्मकं सुख चैत "न्यादा ह्लादनाकारान्मेय "बोधनाकारस्य " विज्ञानस्यान्यत्वाद्, विरुद्धधर्माध्यासस्यान्यत्वसाधनत्वाद्,
अन्यथा 7
स्वीकार करते हैं । अर्थात् सत् रूपांतर से विकल नहीं है मतलब सत् असत् से रहित, नित्य अनित्य से रहित नहीं है इत्यादि, क्योंकि चित्रज्ञान के समान कथञ्चित् असंकीर्ण विशेषात्मक अर्थात् विशेष - भिन्न-भिन्न सुखादि पर्यायें परस्पर में असंकीर्ण-संकर से रहित हैं यह कथन पर्यायार्थिकनय से है, एवं असंकीर्ण विशेष होते हुए भी सभी वस्तुयें द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से एकात्मक-सामान्यात्मक सुखादि अनेक धर्मों से युक्त चैतन्यवस्तु एवं वर्ण संस्थानादि अनेक धर्म से सहित पुद्गल स्कंध देखे जाते हैं ।" अर्थात् सभी वस्तु एकानेकात्मक सिद्ध हैं ।
[ चित्राद्वैतवादी चित्रज्ञान को एकरूप सिद्ध करने का प्रयत्न करता है ]
चित्राद्वैतवादी - सुखादि चैतन्य असंङ्कीर्णविशेषात्मक प्रतिनियत भिन्न-भिन्न अनेक स्वरूप वाले ही हैं एकात्मक नहीं हैं । आह्लादनाकार सुख चैतन्य रूप से मेय-ज्ञेय, ज्ञानाकार विज्ञान भिन्न है क्योंकि विरुद्ध धर्माध्यास सदा भिन्नपने को ही सिद्ध करता है अन्यथा यदि आप विरुद्ध धर्म के होने पर भी अभिन्न मानोगे तो अखिल वस्तु एकरूप हो जावेगी ।
जैन - यह कथन असत् है । फिर आपका चित्रज्ञान भी एकात्मक नहीं बन सकेगा अर्थात् आप चित्राद्वैतवादी चित्रज्ञान को एक ही मानते हैं उसे अनेक मानना पड़ेगा क्योंकि पीताकार ज्ञान नीलादि आकार ज्ञान से भिन्न है । सुखज्ञान और ज्ञेयज्ञान के समान उसमें भी विरुद्ध धर्म पाया जाता है।
1 यथा प्रतिवादिभिः एकान्तेरूपे प्रतिज्ञा क्रियते । सहितमसत् । असदरहितं सत् नित्यरहितमनित्यम् अनित्यरहितं नित्यमिति लक्षणं रूपान्तरशून्यं सदाद्ये कान्तरूपमन्तस्तत्वं बहिस्तत्वं वा किञ्चिद्वस्तु तथा नहि वयं स्याद्वादिनः पश्यामः । कस्मात् यथा चित्रज्ञानस्य कथञ्चिदसंकीर्णविशेषात्मकं कथञ्चिद्विशेषात्मकं तथा सुखादिचैतन्यस्य वर्णसंस्थानस्वभावस्कन्धं च प्रेक्ष्यते यतः । ( दि० प्र०) 2 अन्तस्तत्त्वम् ।
5 एका
3 बाह्यतत्त्वम् । 4 यथा च प्रतिज्ञायते । इति पा० ( दि० प्र०) यथा प्रतिज्ञायते । ( ब्या० प्र० ) न्तत्वेन । 6 परवौद्धादिभिः । 7 तथा च दर्श्यते । 8 सुखादिपर्यायापेक्षया । आत्मशब्दोयमुभयत्र सम्बध्द्यते । तेन विशेषात्मन एकात्मनश्चेति योज्यम् । इत्युक्ते किं तात्पर्यम् ? द्रव्यपर्यायापेक्षया अन्तर्वस्तु बहिर्वस्तु चैकानेकात्मकं नामेत्यर्थः । 9 एकत्वं द्रव्यापेक्षया । 10 सुखादिनानाधर्मसहितचैतन्यस्य । 11 स्कन्धः - संस्थानमाकृतिः । पुद्गलः । 12 चित्राद्वैतवादिनः । 13 प्रतिनियतानेकस्वरूपम् । 14 एव । ( ब्या० प्र० ) 15 ज्ञेय । ( व्या० प्र० ) 16 परिच्छित्ति । स्वरूपस्य ( ब्या० प्र० ) 17 विरुद्धधर्मत्वेप्यभिन्नत्वे सति ।
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