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पूज्य माताजी ने अपना कल्याण करने के साथ-साथ इसी स्वाध्याय, शिक्षा के आधार पर अनेक लोगों को आध्यात्मिक कल्याण से ओत-प्रोत किया है। मध्यान्ह को माताजी के पास उनके सामायिक करने के बाद अनेक यात्री तथा स्थानीय लोग आते हैं और अपनी शंकाएं, समस्यायें माताजी से कहते हैं, पू० माताजी उन सबका समाधान करती हैं । इस प्रकार उनका समय धर्माराधना में ही व्यतीत होता है।
अपने-अपने जीवन में कई लोगों को पढाया भी है और उनसे शिक्षा उनमें से अनेक लोगों ने दीक्षाएं लेकर आप्तकल्याण की ओर अपने को मोड़ लिया है । पू० आयिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी, आदिमती एवं जिनमती माताजी ने पु० ज्ञानमती माताजी से ही शिक्षा प्राप्त की है। उसी शिक्षा के आधार पर दोनों माताओं ने प्रमेयकमलमार्तण्ड जो न्यायशास्त्र महान ग्रन्थ है एवं गोम्मटसार कर्मकाण्ड जो कर्म प्रकृतियों में भरा हुआ है इनकी बहुत सुन्दर टीकाएं की हैं।
इसी प्रकार पू० माताजी ने बाल ब्रह्मचारी श्री राजमल जी को तत्वार्थ राजवार्तिक, गोम्मटसार, कर्मकाण्ड, पंचाध्यायी, जीवकाण्ड आदि ग्रन्थों का अध्ययन कराया। साथ ही संयम में आगे बढ़ने के लिये भी प्रेरणा दी, आपकी प्रेरणा से प्रसन्न होकर राजल जी ने श्री १०८ आचार्य शिवसागर जी से निर्गन्य मुनि दीक्षा ली। आज वे मुनि अजितसागर जी हम सबके लिये वन्दनीय हो गये हैं। आगे चलकर श्री अजितसागर जी ने महाराज को आचार्यपट्ट प्रदान किया। यह भाचार्यपट्ट पू० स्व० भाचार्य धर्मसागर जी का पट्ट है और आयिका ज्ञानमती जी जो पहले कभी उनकी गुरु थी तब उन्हें पूज्य मानकर नमस्कार करती हैं । इस तरह पू० माताजी अपने आर्यिकोचित मंयम का पालन करते हये अनेक शिष्य शिष्याओं का कल्याण कर चुकी हैं।
. आज इस युग में पू० माताजी ने अपने ज्ञान और संयम से जो अपना और पर का कल्याण किया है वह अपूर्व है। और उनका व्यक्तित्व भी आज सर्वोपरि है। विद्वत्ता में जहां वे सर्वाग्रणी हैं वहां संयम और अनुग्रह में भी वे बेजोड़ हैं इन्हीं पू० माताजी ने इस अस्टसहस्री ग्रन्थ की जो महान टीका की है । यह टीका आज तक किसी विद्वान या विदुषी के द्वारा नहीं की गई है। अन्य टीका, ग्रन्थों में भी यही बात है । इस अष्टसहस्रा ग्रन्थ की यह . हिन्दी टीका हो जाने के बाद भी आज इसे समझने वाले बहुत कम हैं फिर इस अष्टसहस्री को पू० माताजी ने अपनी बहुत उपयोगी और पहले से बहत सरल कर दिया। इसके बाद इसका तीसरा और चौथा भाग भी छपेगा । पू० माताजी ५४ वर्ष की हैं, आयु के अनुसार तथा १८ वर्ष की वय से ही तपः साधना से उनकी शारीरिक शक्ति का ह्रास भी हुआ है फिर भी वे ग्रन्थ एवं टीका आदि की रचना में संलग्न रहती हैं। पूज्य माताजी से सभी दर्शनार्थियों का इतना अनुराग रहता है कि वे उनके दर्शन के लिए लालायित रहते हैं, और नमस्कार करते समय उनके प्रति सबको मातृत्व के रूप में अनुराग पैदा होता है और दर्शन करने के बाद अपने को धन्य समझते हैं । यह प्रस्तावना लिखकर मैं पूज्य माताजी के चरणों में नमस्कार करता हूँ।
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