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मनोवती की जगह अभयमती माताजी कहा जाता है, जगह-जगह विहारकर वे भी अपने उपदेशों से जन साधारण का कल्याण कर रही हैं आयिका रत्नमती माताजी आपकी गृहस्थावस्था की मां श्रीमती मोहिनीदेवी ने भी ६० वर्ष की वृद्धावस्था में सन १९७१ में आयिका दीक्षा ग्रहण कर आर्यिका रत्नमती नाम पाकर एक महान आदर्श उपस्थित किया तथा सन १६७१ से लेकर आयिका के व्रतों को निर्दोष पालन करते हए जनवरी १९८५ में हस्तिनापुर में आपके ही सानिध्य में समाधिमरण करके अपना जीवन सार्थक कर लिया है। धन्य है ऐसी मोहिनी मां जिन्होंने १३ संतानों को अपनी पवित्र कुक्षि से जन्म दिया, उसी में से ज्ञानमती माताजी उनकी प्रथम सन्तान हैं।
इस प्रकार अनेक कन्याओं और महिलाओं को शिक्षा प्रदान का व्रत संयम की ओर अग्रणी किया है। है । आपकी गृहस्थ अवस्था की दो बहनें भी कुमार अवस्था में ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर जनसाधारण का उपकार कर रही हैं। इन बहिनों के नाम मालती और माधरी हैं। इस तरह गहस्थ अवस्या के आपके छोटे रवीन्द्र जी ने भी कुमार अवस्था में ही ब्रह्मचर्य प्रतिमा धारण कर रक्खी है। आप जम्बूद्वीप दिगंबर जैन त्रिलोक शोध संस्थान हस्तिनापुर के अध्यक्ष हैं। इस
में पू० माताजी के चरण सान्निध्य में रहकर सनावद (म०प्र०) निवासी ब्र० श्री मोतीचन्द जी आचार्य श्री विमलसागर जी से क्षुल्लक दीक्षा लेकर जम्बूद्वीप क्षेत्र में निवास कर अपना आत्म कल्याण कर रहे हैं। आपको भी दीक्षा की प्रेरणा पू० ज्ञानमतो माताजी से ही मिली है। इस समय इस जम्बूद्वीप क्षेत्र पर आप पीठाधीश के पद पर विराजमान हैं। यह जम्बूद्वीप तीर्थक्षेत्र भी पृ० माताजी की प्रेरणा और लग्न से निर्माण को प्राप्त हुआ है। आज तक जैन जनता ने जम्बूद्वीप को जैन शास्त्रों में ही पढ़ा था, लेकिन अब उसका मूर्तिमान रूप देखने में आता है तो आश्चर्य होता है। इसी जम्बूद्वीप के बीच में ८४ फुट ऊँचा सुमेरू पर्वत है जिसके चारों और नीचे भद्रशाल वन का रूप है उसके ऊपर चलकर नंदन वन का रूप है, फिर काफी ऊपर चलकर सौमनस वन है, और इस वन के ऊपर पाडुक वन है, इन सभी वनों में पूर्व, पश्चिम-उत्तर, दक्षिण चारों दिशाओं में अकृत्रिम चैत्यालयों का रूप बना हुआ है। इसी सुमेरूपर्वत के उत्तरदक्षिण में देवकुरू-उत्तर-कुरू यह दो भोगभूमियां बनी हुई हैं। और इसी सुमेरू के पूर्व और पश्चिम में विदेहक्षेत्र का निर्माण है शेष भरत, हैमवत, हरि तीन क्षेत्र सुमेरू के दक्षिण में बने हैं तथा रम्यक, हैरण्यवत, ऐरावत सुमेरू के उत्तर की ओर निर्मित हैं। इन सभी क्षेत्रों में सिद्धकूट बने हुये हैं जिनमें पृथक्-पृथक् सिद्ध प्रतिमाएं विराजमान हैं।
इसी जम्बूद्वीप के चारों ओर लवण समुद्र का निर्माण है जो देखने में वड़ा सुन्दर प्रतीत होता है । यह सब निर्माण कार्य पूज्य माताजी के संकल्प, शोध और प्रेरणा का फल है। यों तो हस्तिनापुर करोड़ों वर्ष पुराना तीर्थक्षेत्र हैं, परन्तु पू० माताजी ने हस्तिनापुर में विशाल जम्बूद्वीप तीर्थक्षेत्र का निर्माण करवाकर हस्तिनापुर तीर्थक्षेत्र में चार चांद लगा दिये हैं। यही कारण है कि आजकल हस्तिनापुर तीर्थ की वन्दना करने के लिये पृकक-पृथक प्रदेशों से अनेकों बसें कारें सैकड़ों यात्रियों को लेकर आती जाती हैं।
पू० माताजी ज्ञानमती में बौद्धिक विकास और धार्मिक कार्य प्रणाली के साथ-साथ संयमाचरण की भी विशेषता है। पूज्य माताजी आज से ३६ वर्ष पहले संयम के क्षेत्र में आई थी और तब से अब तक उनकी तपः साधना भी अपूर्व हैं। वे प्रातःकाल ४ बजे उठकर दो घण्टे तक सामायिक, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय आदि में संलग्न रहती है । इसके बाद ग्रन्थों की टीकायें, हिन्दी, संस्कृत में अनुवाद करने में प्रवृत्त होती हैं । आज कल आप समय सार की दो टीकाओं का हिन्दी अनुवाद कर रही है। एक टीका आचार्य अमृतचन्द्र की है, दूसरी टीका आचार्य जयसेन की है ये दोनों ही संस्कृत टीकाएं हैं। इन दोनों की हिन्दी टीकाओं को जब सुनते हैं तब श्रोताओं को अध्यात्म को समझने में बड़ी सहायता और प्रेरणा मिलती है। ,
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