________________
आज एक ऐसी विदुषी हैं जिन्होंने कष्टसहत्री वाली अष्टसहत्री की सर्वप्रथम हिन्दी टीका लिखी है । पू० माताजो को संस्कृत भाषा का परिपत्र ज्ञान है तथा गद्य-पद्य दोनों ही प्रकार से वे उसका प्रयोग करने में समर्थ है। यह माता ज्ञानमती ही हैं जिन्होंने व्याकरण ग्रन्थ “कातन्त्र रूपमाला" की सर्वप्रथम हिन्दी टीका लिखी है और अपने शिष्यों को उसका अध्यापन कराया है। प्राचीन आचार्यों में जिस प्रकार आचार्य विद्यानंदि अपनी महत्ता को कायम रवखे हुये हैं वैसे ही पू० माता ज्ञानमती जी भी आधुनिक विद्वानों में अपनी महत्ता को संभाले हुये हैं । विद्या और ज्ञान दोनों ही एकार्थक हैं अतः विद्यानंदि और ज्ञानमती इन दोनों शब्दों की एकता को देखकर यही प्रतीत होता है मानों दोनों एक ही आत्मा हैं।
, पू० ज्ञानमती माताजी ने अष्ट सहस्री की ही टीका नहीं की है बल्कि अन्य ग्रन्थों की भी टीका की है । कुन्दकुन्द कृत नियससार की भी पू० माताजी ने न केवल हिन्दी में बल्कि संस्कृत में भी टीका लिखी है जबकि अन्य किसी आधुनिक विद्वान् ने प्राचीन ग्रन्थों की संस्कृत टीका नहीं की है। इन टीकाओं के अतिरिक्त श्री चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति में से कुछ स्तुतियों को मैंने देखा जिसमें श्री मल्लिनाथजन स्तुति, श्री मुनि सुव्रतानाथ स्तुति, श्री कुंथुनाथ जिनस्तुति, श्री अरनाथ जिनस्तुति आदि हैं। ऐसे ही अनेक स्तुति रचनाएँ भी आपने संस्कृत में की हैं। इन रचनाओं में भिन्न-भिन्न संस्कृत छन्दों का उपयोग किया है-वे छन्द इस प्रकार हैं
शिखरिणी छंद, पथ्वीछंद, मंदाक्रान्ता, अनुष्टप, वंशपत्रपतित छंद, हरिणी छंद, शशिकला छंद, मालिनी छंद, चन्द्रलेखा छंद, प्रभद्रक छंद, सुक छंद, मणिगणनिकरछंद, ऋषभगजविलसित छंद, वाणिनी छंद, कामक्रीड़ा छंद, अतिरेखा छंद आदि अनेक प्रकार की छंदें हैं। आज के कवि, विद्वानों को इनमें से कई छंदों का पता भी नहीं है । किन्तु माताजी की अध्ययनशीलता इतनी विस्तृत है कि उसकी कोई तुलना नहीं कर सकता।
इन स्रोतों की तरह पू० माताजी ने अनेक पूजा विधानों की भी स्वयं रचना की है जिनमें कई विधान तो बिल्कुल नये हैं । विधान रचनाओं के नाम इस प्रकार हैं
१. श्री शांतिनाथ पूजा विधान, २. श्री पंचपरमेष्ठी विधान, ३. श्री ऋषिमण्डल पूजा विधान, ४. श्री जम्बूद्वीप मण्डल विधान, ५. श्री पंचमेरु विधान, ६. श्री जिनगुणसंपत्ति विधान, ७. श्री तीनलोक पूजा विधान, ८. श्री त्रैलोक्य पूजा विधान, 8. श्री सर्वतोभद्र विधान, १०. श्री इन्द्रध्वज विधान, ११. श्री कल्पद्रुम विधान, १२. तीनलोक विधान, १३. तीसचौबीसी विधान, १४. तीनलोक विधान, १५. मण्डलविधान एवं हवन विधि, ये सभी विधान पू० माताजी द्वारा त्रिलोक शोध संस्थान से प्रकाशित किये गये हैं। जो अन्य किसी लायब्रेरी या पुस्तकालय में नहीं मिलेंगे । इन विधान की पुस्तकों के अतिरिक्त पू० माताजी ने और भी अनेक ग्रन्थों की रचना की है। जिनकी संख्या लगभग १५० है । वे सभी पुस्तकें बहुत उपयोगी हैं जिनमें बहुत कुछ शास्त्रीय ज्ञान भरा पड़ा है । साथ ही प्रारम्भ से लेकर युवा पीढ़ी तक उनका अध्ययन करने से पाठक शास्त्रीय ज्ञान में निपुण हो सकता है। दृष्टांत के लिये उन्होंने बच्चों को प्रारम्भिक अध्ययन के लिये बाल विकास पुस्तक के ४ भागों की रचना की है जो अपने आप में बहत सुन्दर तथा बालकों के लिये बहुत उपयोगी है। एक पुस्तक "आत्मा की खोज" है जो सामान्य रूप से बाल युवा वृद्ध सभी को उपयोगी है।
- इस तरह जैन साहित्य की रचनाओं में पूज्य माताजी का दर्जा सभी विद्वानों से ऊपर है । ग्रन्थों की जहाँ संख्या ज्यादा है वहां प्रत्येक ग्रन्थ की उपयोगिता भी बहुत है। पू० माताजी ने ग्रन्थ रचनाओं के साथ अनेक अपने शिष्य प्रशिष्यों का भी कल्याण किया है । पू० माताजी ने अपनी गृहस्थ अवस्था की छोटी बहिन कुमारी मनोवती जी को सन १६६४ के आस-पास क्षल्लिका दीक्षा दी, आज वे आयिका पद पर आरूढ़ हैं और अब
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org